क्यों कनखियों से झांक रही | Newsform

©प्रीति बौद्ध, फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश
गुमसुम सी तुम बैठी हो
या राह किसी की ताक रही।
क्यों मायूसी है मुखड़े पर,
क्यों कनखियों से झांक रही।
जकड़ी है सामाजिक बंधन में
या संस्कारों की गठरी लाज रही।
21वीं सदी की नारी है तू,
क्यों नैन निराशा में झांक रही।
बहुत जी चुकी बंध परंपराओं में
अब क्यों सपनों को मार रही।
स्वच्छंद परिंदों सी भर उड़ान,
क्यों न पर खोल आसमा नाप रही।
बांधा था रीति – रिवाजों ने
बंधन मुक्त होकर आगे बढ़।
अब खुद को मजबूत बना,
क्यों न आंखें सपना ताक रहीं।