मुझे अपने गांव की याद आती है… | ऑनलाइन बुलेटिन
©प्रीति विश्वकर्मा, ‘वर्तिका’
परिचय- प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
पगडंडी पर दौड़ते,
बच्चों के नन्हे नन्हे पाँव की
दूर पेड़ तले लगी पंचायत,
पीपल की ठंडी ठंडी छाव की
याद आती है, हाँ ना!
मुझे अपने गाँव की याद आती है
बागों के बीच तलैया में,
खिले कमल, कुमुदनी,
कोकाबेरी, कमलगट्टे की
खलिहानों में रखी पराली,
उसके इर्द गिर्द लुकाछिपी,
खेलते नटखट,शैतान बच्चों की,
याद आती है…….
मुझे अपने गाँव की याद आती है।
सावन में कदम की डाली,
पर डाले गये झूलों की
सावन में महकते, मुस्कुराते,
अनगिनत फ़ूलों की
कच्चे आम से बने पन्नें,
पक्के आमों से बने अमावट की
याद आती है….
मुझे अपने गाँव की याद आती है।
नदियों की कलकल,
पक्षियों के करलव की
घर के आँगन में, खप्पर में
लगायें चिड़ियाँ के घोसलों की
माँ के रखे हुये कलेवे,
पापा के रात को लायी हुई जलेबी की,
याद आती है …….
मुझे अपने गाँव की याद आती है।
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