लावारिस लाश | ऑनलाइन बुलेटिन
©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई
एक शोर था, शायद कोई मर गया।
लावारिस था, मर गया यानी तर गया।
कोई नहीं था, इसके पीछे रोने वाला।
कौन था खाने और खिलाने वाला?
न अपना, न कोई पराया।
कहीं धूप तो कहीं छाया।
बात अंतिम संस्कार पे ठहर गयी।
कभी श्मसान कभी क़ब्रिस्तान पे नज़र गयी।
मज़हब का खेल खेला जाने लगा।
गेरुआ और हरा रंग ढूँढा जाने लगा।
झगड़ा लगातार बढ़ता गया,
वक़्त के साथ लाश सड़ता गया।
बढ़ने लगा शोर, फिर हुई कहीं तोड़फोड़,
कहीं लगी आग, नेताओं का हुआ गठजोड़।
देखते ही देखते कई लाशों का ताँता लगने लगा।
बात लावारिस की थी, अब तो वारिस भी जाने लगा।
बात लावारिस की थी, अब तो वारिस भी जाने लगा।