मेरा प्यारा गांव | Onlinebulletin.in
©हरीश पांडल, विचार क्रांति, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
मेरा प्यारा गांव
घने वृक्षों की छांव
शहरों की शोर
है बेहतर
दूर गगन की छांव
सूरज की लालिमा संग
चिड़ियों का चहचहाना
बिस्तर से सुनाई देता
मां के हाथों
बर्तनों का टकराना
अलसाइ आंखों से
अनचाहा मेरा
बिस्तर छोड़ जाना
घर के बाहर से ही
मित्रों का आवाज लगाना
नीम की दातुंने करते
दंड पेलते, दौड़ लगाते
ठंडी पुरवाई के संग
सरोवर में डुबकी लगाना
घंटे दो घंटे की मस्ती
स्वास्थ्य लाभ ही पाना
रास्ते में पड़ता
चंदन चाचा का बाड़ा
जहां चलता रोज
दंगलों का दांव
मेरा प्यारा गांव
घने वृक्षों की छांव
चूल्हे पर जलती लकड़ी
तवे पर पक रही रोटी,
जिसमें देशी घी के छींटे
विदेशी खाद्य पड़ते है फींके
धनिया, मिर्ची, टमापर
की तीखी चटनी
बन गई है रोज की कहानी
खाते, गाते कब बड़े हो गए
छूटा बचपन आई जवानी
मिट गए सब पुराने घांव
मेहमानों के आने का
संदेश देते
मुंडेर पर बैठे कौवे
करते कांव कांव
मेरा प्यारा गांव
घने वृक्षों की छांव
सांझ होते ही
चौपाल पर
लोगों की जमघट
लगती है
बड़े बुजुर्गो के
किस्से कहानी
सबको प्यारी
लगती है
सब आपस में
घुलते मिलते
डाले बांहो में बांह
मेरा प्यारा गांव
घने वृक्षों की छांव
शहरों की शोर
से है बेहतर
दूर गगन की छांव
मेरा प्यारा गांव
घने वृक्षों की छांव