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अनागारिक धर्मपाल | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय- प्रधान संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश


 

17 सितंबर- 1864 को कोलंबो (श्रीलंका) के एक बौद्ध परिवार में जन्मे धर्मपाल की बचपन से हसरत थी कि वह कभी पुण्य-भूमि का दर्शन करेगें। श्रीलंका आदि बौद्ध देशों में भारत को ‘ पुण्य-भूमि ʼ कहा जाता है, क्योंकि यह तथागत बुद्ध की जन्मभूमि है।

 

एक बौद्ध परिवार में जन्म लेने के कारण बौद्ध संस्कार उन्हें जन्मजात मिले थे। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण युवावस्था तक उन्होंने पूरा ‘ त्रिपिटक ʼ पढ़कर आत्मसात् कर लिया था।

 

बचपन में एक ईसाई मिशनरी स्कूल में पढ़ने के कारण उनका नाम डॉन डेविड था, लेकिन अंग्रेजी शासन के विरुद्ध युवावस्था में उन्होंने क्रांतिकारी कदम यह उठाया कि अपना ईसाई नाम त्यागकर बौद्ध नाम ‘ धर्मपाल ʼ धारण कर लिया। 

 

फिर बचपन की हसरत को साकार करते हुए वे युवावस्था में, पच्चीस वर्ष की आयु में वर्ष 1889 में, जापान, बर्मा इत्यादि देशों की यात्रा करते हुए भारत आए।जब उन्होंने भारत के बौद्ध तीर्थों की यात्रा की तो उनको खंडहर अवस्था में देखकर वे हतप्रभ रह गये और बोधगया जहां तथागत बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे, मे बुद्ध मंदिर की दशा देखकर तो वह शब्दशः रो पड़े। गया का मंदिर गैरबौध्द महंतो के कब्जे में था ।

 

इसके बाद उन्होंने आजीवन भारत में रहकर बौद्ध तीर्थों के उध्दार का संकल्प लें लिया। उन्होंने बोधगया के बुद्ध मंदिर की मुक्ति का एक राष्ट्रव्यापी, विश्वव्यापी आन्दोलन चलाया। उन्होंने एक बौद्ध सांस्कृतिक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें भारत सहित जापान, श्रीलंका, चीन, बर्मा इत्यादि बौद्ध देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। 31 मई 1891 में उन्होंने महाबोधि सोसाइटी की स्थापना की। 

 

सन् 1893 में उन्होंने शिकागो, अमेरिका में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भी हिस्सा लिया, जिसमें स्वामी विवेकानंद भी सम्मिलित हुए थे।

 

अनागारिक धम्मपाल और स्वामी विवेकानंद बोधगया में साथ-साथ रह चुके थे। दोनों में अच्छी मैत्री थी।दोनों एक दुसरे से प्रभावित थे, अनागारिक धम्मपाल के सान्निध्य में स्वामी विवेकानंद ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया तथा शून्यवाद से अत्यंत प्रभावित हुए। शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में अनागारिक धम्मपाल (धर्मपाल) ने अपने व्याख्यान के लिए निर्धारित समय में से स्वामी विवेकानंद को समय दिलवाया था, क्योंकि स्वामी जी आमंत्रित वक्ताओं में सूचीबद्ध नहीं थे।

 

तब स्वामी जी ने बुद्ध के शून्यवाद पर ही अपना व्याख्यान केन्द्रित किया था जिसके लिए आज तक किंवदन्ती हैं कि विवेकानंद जीरो पर बोले थे, दरअसल उन्होंने बुद्ध के शून्यवाद पर बोला था इस सम्मेलन में सम्मिलित हो कर दोनों प्रतिभाएं विश्वविख्यात हो गयी, अनागारिक धर्मपाल भी और स्वामी विवेकानंद भी।

 

इस सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद विश्वविख्यात हुए अनागारिक धर्मपाल ने बौद्ध धर्म को एक वैश्विक आन्दोलन का रूप दिया। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी इत्यादि देशों में उन्होंने महाबोधि सोसाइटी की शाखाएं स्थापित की।उनमें प्रभावित होकर होनोलूलू की एक श्रद्धालु महिला मेरी ई.फोस्टर ने 1903 से 1913 तक लगातार दस वर्षों तक महाबोधि सोसाइटी को प्रतिमास रू. 3000/- की मासिक सहायता प्रदान की जिससे उनके बौद्ध आन्दोलन को बहुत बल मिला।

 

उनके आन्दोलन के फलस्वरूप बिहार सरकार ने सन् 1953 में एक विधेयक पारित करके बोधगया का मंदिर एक समिति को सौंपा। अनागारिक धर्मपाल की यह एक बहुत बड़ी विजय थी, यह उनके ही सद्प्रयासों का प्रतिफल था।

 

सन् 1904 में अनागारिक धर्मपाल ने सारनाथ को अपना स्थायी निवास बना लिया था। यहीं रहकर उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए प्रकाशन, व्याख्यान और यात्राएं की, अमेरिका, यूरोप, जापान, बर्मा, फ्रांस, इटली, श्याम, सिंगापुर, जावा, चीन, मंचूरिया, कोरिया, इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, आदि देशों मुद्रणालय ʼ नामक एक प्रकाशन संस्थान श्रीलंका में खोला।

 

भारत के बौद्ध तीर्थ आज जो थोड़े बहुत जीते-जागते दिखते हैं, उसका बहुत बड़ा श्रेय अनागारिक धर्मपाल को हैं। 

 

तथागत बुद्ध के इस प्यारे सपूत ने अंततः अंतिम सांस भी अपनी ‘ पुण्य-भूमि ʼ भारत के सारनाथ में 29 अप्रैल 1933 में ली, उनकी अस्थियाँ सारनाथ की ” मूलगंध कुटी ” में आज भी स्थापित हैं।

 


नोट– उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.


 

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