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नौकरी और समानता | Newsforum

©हरीश पांडल, बिलासपुर, छत्तीसगढ़


 

 

नौकरी है तो तुम्हारी

पहचान है,

नौकरी है तो तुम्हारा

सम्मान है,

कितना भी कर लो

सामाजिक कार्य

होता रहा अपमान है

क्या नौकरी ही सच्चे

सामाजिक कार्यकर्ता

का मापदंड है?

क्या नौकरी ही,

ईमानदार होने का

प्रमाण है,

तन मन और धन

तीनों ही कारक

है आवश्यक

फिर क्यों केवल धन

वालों को ही

महत्व दिया जाता है

तन और मन

लगाने वाले को क्यों

दरकिनार किया जाता है

क्या धन ही सबों

गुणों की खान है

नौकरी है तो सम्मान है

नौकरी है तो पहचान है?

सामाजिक कार्य के

मूलमंत्र है

धनतंत्र और जनतंत्र

फिर धनतंत्रों का

सामाजिक संगठनों में

एकाधिकार क्यों?

बेरोजगारों का होता

तिरस्कार क्यों?

समाजसेवा का जज्बा

जिसके अंतर्मन में है

बेरोजगार होना

उसकी गुनाह तो नहीं?

फिर उसे समानता

क्यों नहीं दिया जाता?

उसे भी समाज में आगे

क्यों नहीं किया जाता?

इतिहास उठा कर

देख लो

क्या हमारे महापुरुष

धनतंत्री थे?

क्या वे किसी देश

के मंत्री थे?

वे विचारधारा के धनी थे

वे जनतंत्री थे।

विचारधारा ही नेतृत्व

करता है

महापुरुषों के पास

विचार थे

विचारों ने जन समुह

को एक किया

जन समुह ने सभी

आयामों से

संगठनों को मजबूत किया

समाज के प्रत्येक अंग

का महत्व है

समानता ही संगठन का

घनत्व है

समानता अपनाओं

समाज मजबूत बनाओ

समानता अपनाओं

समाज मजबूत बनाओ …


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