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चूल्हे की आग पर बूंद-बूंद बरसता पानी | Newsforum

©शीबा, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश

परिचय– अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कई पुस्तकें, कविताएं प्रकाशित, कहानी, कविता व लेखन में रुचि।


 

 

बारिश का पानी नहीं

आंखों से कोई दर्द बहता है।।

 

किसी का दिल रोता है

कोई उसे बारिश का पानी कहता है।।

 

 

टूटी हुई छत के पत्थरों से टपकती हुई बूंदे बारिश के मौसम में सुहावनी नहीं लगती बल्कि एक तरफ छत के हर कोने से टपकता हुआ पानी दिल में एक डर सा पैदा कर देता है। ना जाने कब बारिश बंद होगी? एक तरफ भीगता हुआ चूल्हा, सुलगती हुई गीली लकड़ियां भूख को और भी तेज़ कर देती है। ना जाने कितने ऐसे कच्चे घर आज भी हैं जो बरसात के मौसम में बारिश ना आने की दुआ करते हैं। आंगन में बारिश का पानी ऐसे भर जाता है, जैसे गंगा-यमुना का संगम हो रहा हो।

 

कौन जाने; किसके घर आज रोटी पकी भी है या नहीं। खाना बनाने की नौबत तो तब आए जब यह बारिश रुकने का नाम ले। घर का सारा सामान नाव की तरह इधर-उधर हिचकोले लिए तैर रहा है। बेबसी आंखों में उतरते हुए आंसुओं की तरह छलकती हुई पानी के बूंदों में मिल जाती है। कौन जाने किसका दिल रो रहा है, ना जाने कितना दर्द रूह को ज़ख़्मी किए देता है। जो एक दो महीने पहले ही मिट्टी के गारे से दीवार बनाई गई, बारिश में ढह गई। घर की जो हालत है, जो अब तक चहारदीवारी में कहीं छुपी हुई थी अब सबके सामने फाश हो गई। आखिर कब तक बेबसी छुपी रहती।

 

चूल्हे की आग सुलग-सुलग कर जल भी जाती बूंद-बूंद गिरता हुआ पानी फिर से आग को बुझा देता। भले ही चूल्हे की आग जलकर बुझ जाती, मगर भूख की आग और तेज होने लगती। कैसी अजीब बेबसी होती है। जहां बारिश के मौसम में पत्ता-पत्ता अपने निखार पर इतराता इठलाता हुआ सुहावना हो जाता है, वहीं यह मौसम किसी के लिए सुहावना और पिकनिक मनाने के लिए होता है। ना जाने कितने घरों में खाना भी वक्त पर नहीं बन पाता।

 

बारिश का पानी घर के कोने-कोने में ऐसा भर जाता है जैसे कोई नदी, नाला बनाकर पानी भर दिया है। मूसलाधार बरसती हुई बारिश से कलेजा कांप सा जाता। चूल्हे की सुलगती हुई आग को जला-जला कर     (मां) भी परेशान हो जाती। एक कोने में बैठे सुकड़े हुए बच्चे जो बारिश के पानी से बचने की नाकाम कोशिश में लगे रहते उनके चेहरे पर ऐसी बेबसी और कातरता होती है जो दिल को चीरती है।

 

ना जाने उस रात रोटी पकाने के लिए कितने जतन किए मगर टपकता हुआ पानी आग को बुझा देता है। कितनी परेशानी से उस रात रोटी पकाई जाती है। रोटी पक भी जाए मगर खाने में सब्जी को बनाना उतना ही मुश्किल है जितना टूटी हुई छत से पानी को रोकना। दो-चार लाल मिर्च लेकर उसको सिल पर पीसकर चटनी बनाकर खाना यह भी एक बड़ी नेमत से कम नहीं। शहर हो या गांव बारिश के आते ही बिजली ऐसे गुम हो जाती है जैसे बारिश और बिजली की आपस में कोई पुरानी दुश्मनी हो।

 

टप…… टप… गिरता हुआ पानी, सिरसिराते हुए मच्छर भिन्न-भिन्न करते हुए ना जाने कौन सा गीत अलापते हैं। सारे बिस्तर पानी में ऐसे भीग चुके हैं मानो धोकर डाला गया हो। सारी रात इधर-उधर सरकते हुए आंखों में रात गुज़र जाती है; मगर तिनका बराबर भी सूखी जगह सिर छुपाने को नहीं मिलती। कितनी बेबसी होती है जब सारा गंदा पानी घर के कोने-कोने में भर जाता है। खाने-पीने का सारा सामान इधर-उधर तैरता हुआ नज़र आता है। कड़कती-चमकती बिजली की रौशनी और बादलों की गड़गड़ाहट से दिल कांप जाता है। आंखों में नींद का पता नहीं भीगी चारपाइयों पर नींद नहीं आती।

 

इतनी सारी तकलीफों के बाद भी चेहरे पर एक सुकून सा होता है। ऐसा सुकून मानो खुदा का शुक्र अदा किया हो। होंठों पर एक तबससुम सा बिखर सा जाता है कि (कल यह दिन भी नहीं रहेगा) बस इसी उम्मीद पर ना जाने कितनी बारिशें टूटी हुई छत और दीवारों के ऊपर से गुजर जातीं हैं। ना जाने कितने घरों को छुपी हुई दास्तान दीवार के ढहते ही बयान हो जाती है।

 

 

 

गिरती हुई बूंद आंख से गिरे आंसू में मिल गई।

टूटा ज़ब्त का बंधन जब मिट्टी की दीवार भी गिर गई।

 

 

बेबसी कहूं बद;किस्मती या तंगी का नाम दूं।

उस रात चूल्हा सुलगाते मां की आंखें लाल पड़ गईं।

 

 

गीली लकड़ियों का धुआं था या आंखों का पानी।

भूख से आंखों में नींद नहीं रात यूंही गुज़र गई।

 

 

बदहाली घर की बयान करती है छत से टपकती हुई हर बूंद।

कच्ची दीवारों पर ना जाने कितनी बारिशें गुजर गईं।

 

 

बारिश का बहता हुआ पानी कह रहा है कहानी।

छुपी हुई हालत अब यूं सरेआम खुल गई।

 


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