बस यूं ही…

©पद्म मुख पंडा
बवंडर सा उठ रहा है, मेरे मन में, आजकल,
रोकना चाहा, मगर, हो रहा हूं, असफल।
दिमाग़ का पुर्जा पुर्जा, हो गया है ढीला,
सफ़र में रहा हूं तो हर राह बन गया कंटीला।
इंसानियत को तवज्जो देते, हुआ पानी पानी,
सच्चाई की राह पकड़ी वह भी हुई है बेमानी।
न जाने कब मिलेगा, मेरे प्रयत्नों का प्रतिफल,
उत्सुकता और परिणाम पर हो गया हूं चंचल!
संस्कार में मिले हैं, न्याय और सत्य के वचन,
जिंदादिली से गुजर रहा है अपना जीवन!
दुष्ट आत्माएं बिगाड़ रहीं हैं,सामाजिक सौहार्द्र,
असहाय, अनाथ बच्चों के नेत्र अविरल आर्द्र!
नेतृत्व कर रहे निरंकुश शासक क्रूर अभिमानी,
जन द्रोही, आत्म घाती, हिंसक, कृतघ्न प्राणी!

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