अच्छी नहीं लगती | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

©भरत मल्होत्रा
दरवाज़ों पे खाली तख्तियां अच्छी नहीं लगती,
मुझे उजड़ी हुई ये बस्तियां अच्छी नहीं लगती,
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चलती तो समंदर का भी सीना चीर सकती थीं,
यूँ साहिल पे ठहरी कश्तियां अच्छी नहीं लगती,
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ताल्लुक बोझ लगता है तो कह दो साफगोई से,
तेरे लहजे में लेकिन तल्खियां अच्छी नहीं लगती,
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मुझे अपना ना समझोगे तो कोई गम नहीं मुझको,
तेरी गैरों से पर नजदीकियां अच्छी नहीं लगती,
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खुदा भी याद आता है ज़रूरत पे यहां सबको,
दुनिया की यही खुदगर्ज़ियां अच्छी नहीं लगती,
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उन्हें कैसे मिलेगी माँ के पैरों के तले जन्नत,
जिन्हें अपने घरों में बच्चियां अच्छी नहीं लगती,
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