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वक़्त नहीं मिलता…

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़

परिचय- मुंबई, आईटी टीम लीडर


 

मसरूफियत के शिकंजे में क़ैद हुए, कि अब वक़्त नहीं मिलता।

ज़माने की खातिर ख़ुद को बेच आए, अब वक़्त नहीं मिलता ।

 

मां की सिसकियां, पिता के आंसू दिखाई देने लगी हैं फोन पे,

गांव से शहर कहीं दूर निकल आए, अब वक़्त नहीं मिलता।

 

शहर के शोर में दब कर रह गई है मेरे दिल की ख़ामोशी,

खुद की ख़ातिर भला क्या वक़्त निकालें, अब वक़्त नहीं मिलता।

 

आंखों के आंसू अक्सर लौट जाती हैं पलकों को छूकर,

सब्र का पैमाना बैखौफ छलक जाए, अब वक़्त नहीं मिलता।

 

दिन से महीने और महीने सालों में बीत जाया करती हैं,

परिंदे भला कैसे लौट आएं घर को, अब वक़्त नहीं मिलता।

 

रोटी, कपड़ा और मकान की ख्वाहिश हो जाती कब की पूरी,

दिखावे की ज़िम्मेदारी ने ऐसा निचोड़ा, अब वक़्त नहीं मिलता।

 

जिस्मानी सुकून की खातिर, ज़मीर का सौदा किया निलोफर

नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़

रूह की तश्नगी मिटाए किस तरह, अब वक़्त नहीं मिलता।

रूह की तश्नगी मिटाए किस तरह, अब वक़्त नहीं मिलता।

 

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