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गूंज…

©बिजल जगड

परिचय- मुंबई, घाटकोपर


 

नहीं कोई शिकवा ना शिकायत मुझे अब इस ज़माने से,

दिलों में दर्द लिए बचकर चलता हूं अलग कारवां से।

 

जर्द हवा ,जमीन जलने लगी है नया आसमां बनाते हुए,

निगाहों की बिखरती रेत सावन की झड़ी निकती आंखों से।

 

मौसम का सर्द मिजाज;छू कर देखा तो हाथ जलने लगे,

बना है दिल बाग ओ सहारा; चमन खाक हुआ है फूलों से।

 

जिंदगी हम से बड़ी हो जैसे की ख़्वाब में ही उम्र कटी हो ,

धूप में साए कम हो रहे , किरदार ख़ालिस है बनावट से।

 

नींद की दहलीज पर दिन उम्मीदों का निकलता रहा है,

एक दिया है ताक़ में ,एक अक्स उसमे से निकल रहा है

नींद इक जज़ीरा है जिस में ख़्वाब बस्ते हैं जिंदगी बस्ती है,

इक पुरानी गूंज दिल में गूंजती,साहिलों से दूर दरिया हुआ है।

 

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