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उसी गांव की यादों में | ऑनलाइन बुलेटिन

©गायकवाड विलास

परिचय- लातूर, महाराष्ट्र


 

ससुराल में याद आती है मेरे गांव की,

जहां गुजरा है बचपन मेरा

सखियों के साथ हंसते-खेलते।

 

वही यादें आती हैं मन में उमड़ उमडकर,

उसी यादों के संग संग

दिन मेरे यहां गुजर जाते हैं।

 

कैसे भूल पाऊं मैं वो बचपन के खेल निराले,

जहां हर आंगन में लगे रहते थे सखियों के मेले।

छूट गया वो सबकुछ मेरा, गांव में वहीं पर,

उसी गांव की यादों में, ये मन मेरा उदासी में खो जाता है।

 

गांव की बातें ही कुछ और थी जीवन में,

ये ससुराल कभी भी अपना गांव नहीं बन जाता है।

मां बाप की छत्रछाया में बीत गया वो बचपन,

वही मां बाप का प्यार यहां ससुराल में कहां मिलता है?

 

चाहे कितना भी, मैं यहां घुल-मिल जाऊं ससुराल में,

चाहे कितने भी रिश्ते निभाएं तन-मन से यहां।

फिर भी अश्क बहते है नयनों से मेरे यहां पर,

क्योंकि ससुराल की मिट्टी भी यहां पराए जैसी लगती है।

 

धरती जैसी मां की ममता और आसमां जैसा बाप का आशीष

उसी प्यार और दुलार के लिए हम यहां हरपल तरसते है।

ऐसे ही दिन गुज़र जाते है ससुराल में गांव के यादों के साथ,

उन्हीं यादों को,कैसे कोई बेटी भूला सकती है?

 

ससुराल में याद आती है मेरे गांव की,

वही गांव आज मेरे लिए पराया हुआ है।

मेहमान बन गई हूं मैं उसी गांव के लिए,

मगर उसी गांव के यादों में,मुझे अपनेपन की महक आती है।

 

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