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एक अलविदा तो कह सकते थे तुम | ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़

परिचय– मुंबई, आईटी सॉफ्टवेयर इंजीनियर.


 

एक हम हैं जो बिन तेरे, रह न सके।

एक तुम थे जो अलविदा कह न सके।

 

आख़री बार जब फ़ोन तुमने किया,

घर में शहनाई की धूम थी औऱ ये दिल बेक़रार।

हाथों में तुम्हारे नाम की मेहंदी लगाए,

हर पल कर रही थी, तुम्हारे आने का इंतज़ार।

 

वादा किया था तुमने, हाथों में हाथ रख

सात जन्मों तक जीवन साथी बन साथ निभाओगे,

अंधेरा जब कभी आएगा जीवन में,

साया बन रौशनी की ओर साथ ले जाओगे।

 

आ तो गए तुम, लेकिन तिरंगे में लिपटकर,

शहनाई बजी थी, पर तुम्हारी सुपुर्द-ए-ख़ाक पर।

मेहंदी वाली हाथों से लिख रही हूँ नाम,

तम्हारे शहादत की जलती हुई चिता के राख पर।

 

तुम अपनी हर बात मुझे अक्सर बताते थे,

एक आख़री पैग़ाम दे सकते थे तुम।

तुम मुझसे कभी भी कुछ नहीं छुपाते थे।

एक अलविदा तो कह सकते थे तुम।

 

लगता है ऐसा कि काश, एक बार आ जाते,

अलविदा कहने के बहाने, एक मुलाक़ात कर जाते।

चिट्ठी या सन्देश, कैसे दूँ मैं तुम्हें,

दर्द की दास्ताँ कैसे बताऊँ मैं तुम्हें।

 

मौत तुम्हें आई, दफ़न ख़ुद को मैंने कर लिया।

चिता जलती रही तुम्हारी, क़फ़न मैंने पहन लिया।

क़फ़न मैंने पहन लिया।


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