हे कली | ऑनलाइन बुलेटिन
©गुरुदीन वर्मा, आज़ाद
परिचय– गजनपुरा, बारां, राजस्थान.
हे कली,
क्यों इस तरहां मुस्करा रही हो,
क्यों हो रही हो इतनी बेचैन,
अपनी इस जवानी पर ,
और क्यों हंस रही हो मेरी सूरत पर।
क्या तुझको मालूम नहीं,
मैं भी टूटा हुआ फूल हूँ ,
महककर अब सूख चुका हूँ ,
तू भी लगी है उसी डाल पर,
मेरे साथ उसी बाग में।
सिर्फ अंतर यह है कि,
तू मेरे बाद जन्मी है,
इसलिए तू आबाद है,
इसलिए तू जवान है,
मगर मुझको अफसोस नहीं है,
मेरी बर्बादी और मौत पर,
क्योंकि मैं चढ़ा हूँ शहीदों पर।
तू मदहोश है आजादी में,
लगे हैं पंख तुझे उन्मादी में,
फिर भी तुमसे मैं नाराज नहीं,
बस दर्द इसलिए होता है,
देखकर उस माली की दशा,
जिसने सींचा है तुमको,
अपने खून- पसीने से,
उसकी पगड़ी गिरा मत देना,
हे कली ।