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पवार हारे वार ! ऊंट आया पहाड़ तले !!

Pawar lost the attack! The camel came under the mountain!!

 

 

(Pawar lost the attack! The camel came under the mountain) अंगूर के उत्पादक, किसान नेता शरदचंद्र गोविंदराव पवार, अब किसमिस के व्यापारी हो जाएंगे। द्राक्ष्य सूख गया। निर्वाचन आयुक्त के कल के (7 फरवरी 2024) निर्णय के बाद। राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (रांकापा) अब उनकी नहीं रही। ठीक 25 वर्ष बीते, शरद पवार ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (10 जून 1999) तोड़ डाली थी। हालांकि यह राष्ट्रनेता केंद्र में रक्षा और कृषि मंत्री रहा और तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी। अब मात्र सांसद रह गया। कांग्रेस को पवार ने दूसरी बार तोड़ा था। दलबदलू बनकर।

 

पहली बार पवार कांग्रेस से नाता तोड़कर, विपक्ष जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार 1978 में मुख्यमंत्री बने थे। मगर पवार की प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार को फरवरी 1980, में केंद्र में इंदिरा गांधी के सत्ता में लौटने के बाद बर्खास्त कर दिया गया था।

 

नियति ने पवार से ऐन वक्त पर प्रतिशोध लिया। शंकरराव चह्वाण ने 1978 में पवार को अपना माना था। धोखा खा गए। त्यागपत्र देना पड़ा। जैसे को तैसा मिला। अब पुत्रीमोह में फंसकर शरद पवार ने योग्य भतीजे को तजा, सगी बेटी सुप्रिया को उत्तराधिकारी चुना। मगर चुनाव आयोग ने उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया। इसीलिए पुत्री सुप्रिया ने इस निर्णय पर कहा : “मुझे लगता है कि जो शिवसेना के साथ हुआ, वही आज हमारे साथ हो रहा है। इसलिए यह कोई नया आदेश नहीं है। बस नाम बदल गए हैं, लेकिन फैसला पुराना है। शरद पवारजी पार्टी को फिर से बना लेंगे।”(Pawar lost the attack! The camel came under the mountain)

 

भतीजे से आहत शरद पवार अब सर्वोच्च न्यायालय से आस लगाए बैठे हैं। अगर वहां भी गच्चा खा गए, तो क्या होगा ? शरद पवार ने चुनाव निशान बरगद का पेड़ मांगा है जो 1952 में सोशलिस्ट पार्टी का होता था। इस पार्टी के कई रूपांतरण हो चुके हैं। शायद शरद पवार को अब एहसास हो रहा होगा कि अपनों से द्रोह के बाद कैसा लगता है ? खैर यह तो न्यायिक मसला है।

 

मगर शरद पवार के साथ ठीक वैसा ही हो रहा है जैसा वे अपनों के साथ आदतन करते आए हैं। बात ठीक 25 वर्ष पूर्व की है। सोनिया कांग्रेस से शरद पवार (10 जून 1990) को अलग हुए। यह रांकापा तब से शरद पवार के जेब में रही। हाल ही में राजकमल प्रकाशन ने शरद पवार की जीवनी “शरद पवार : अपनी शर्तों पर” प्रकाशित की है। इसके लेखक खुद शरद पवार हैं। पुस्तक में शरद पवार के निजी और राजनीतिक जीवन के कई रोचक किस्से पढ़ने को मिलेंगे। इन दिनों उनकी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी पर संकट के बादल छाए हुए हैं। पुस्तक में शरद पवार ने एनसीपी के गठन का विस्तार से वर्णन किया है। पुस्तक में एक अध्याय है : ‘अन्तिम विभाजन’। इस अध्याय में खुद शरद पवार ने विस्तार से लिखा है कि किस प्रकार कांग्रेस में उनकी अनदेखी होने लगी थी और फिर एक दिन सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर बेबाक टिप्पणी रखने पर किस प्रकार पार्टी ने पीए संगमा, तारीक अनवर सहित उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। (Pawar lost the attack! The camel came under the mountain)

 

प्रस्तुत पुस्तक के एक अंश- “अन्तिम विभाजन” में लिखा है : “बारहवीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न होने के बाद ही पार्टी मोर्चे पर काफी गलत चीजें घटित होने लगीं।  मेरे और सोनिया गांधी के बीच पहले से ही काफी खटास थी। इस सम्बन्ध में कारणों की चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूं परन्तु मैंने जिम्मेदारियों पर केन्द्रित कर कार्यकारी सम्बन्ध बनाए रखे। वह कांग्रेस अध्यक्ष थीं और मैं लोकसभा में पार्टी का नेता था। इससे पूर्व कि यह व्यवस्था भली प्रकार स्थापित हो, एक घटना ने इस कार्यकारी एकता के बारे में भी मेरा विश्वास तोड़ दिया।”

 

शरद पवार ने खुलासा किया कि उन्होंने 1999 में कांग्रेस छोड़ दी थी क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार गिरने के बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा पेश किया था। पवार ने कहा कि उन्हें मीडिया रिपोर्टों के माध्यम से सोनिया गांधी के सरकार बनाने के दावे के बारे में पता चला। “मनमोहन सिंह या मैं उस पद (प्रधानमंत्री पद) के लिए सही दावेदार थे। मैं घर पर था जब मुझे मीडिया रिपोर्टों से पता चला कि कांग्रेस अध्यक्ष ने सरकार बनाने का दावा पेश किया है। यही वह क्षण था जब मैंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया।” (Pawar lost the attack! The camel came under the mountain)

 

पवार के कट्टर समर्थक, केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल अगिटोक संगमा का प्रकरण दर्शाता है कि उन्होंने रांकापा बड़ी विवशता पर छोड़ी। संगमा लोकसभा के अध्यक्ष थे। फिर मेघालय के मुख्यमंत्री भी। सोनिया गांधी ने संगमा को कांग्रेस से निकाल दिया। उन्होंने विदेशी मूल की महिला के प्रधानमंत्री बनने का विरोध किया था। अब शरद पवार मराठी अस्मिता के संवरण को मुद्दा बना सकते हैं। आने वाले दिन ही बताएंगे कि प्रधानमंत्री का स्वप्न देखने वाले क्या महज प्रादेशिक नेता बनकर जाएंगे ? पुनः मूषको भव ! (Pawar lost the attack! The camel came under the mountain)

 

Editorial
के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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