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शायरा-ज़ेबुन्निसा | ऑनलाइन बुलेटिन

©द्रौपदी साहू (शिक्षिका)

परिचय– कोरबा, छत्तीसगढ़, जिला उपाध्यक्ष- अखिल भारतीय हिंदी महासभा.


 

ज़ेबुन्निसा बादशाह औरंगज़ेब की सबसे बड़ी संतान थी। उनका जन्म 5 फ़रवरी, 1639 ई. को दक्षिण भारत के दौलताबाद स्थान पर फ़ारस के शाहनवाज ख़ाँ की पुत्री बेगम दिलरस बानो (रबिया दुर्रानी) के गर्भ से हुआ था। बचपन से ही ज़ेबुन्निसा बहुत प्रतिभाशाली और होनहार थी। हफीजा मरियम नामक एक शिक्षिका से उसने शिक्षा प्राप्त की और अल्प समय में ही सारा ‘क़ुरान कंठस्थ कर लिया। विभिन्न लिपियों की बहुत सुंदर और साफ लिखावट की कला में भी वह दक्ष थी। वह सूफ़ी प्रवृत्ति की धर्मपरायण स्त्री थी।

 

ज़ेबुन्निसा की मँगनी शाहजहाँ की इच्छा के अनुसार उसके चाचा दारा शिकोह के पुत्र तथा अपने चचेरे भाई सुलेमान शिकोह से हुई, किंतु सुलेमान शिकोह की असमय ही मृत्यु हो जाने से यह विवाह नहीं हो सका।

 

जेबुन्निसा का लगाव पढ़ने की ओर बढ़ा। वे दर्शन, भूगोल, इतिहास जैसे विषयों में तेजी से महारत हासिल करने के बाद साहित्य की ओर बढ़ीं। तब जेबुन्निसा के गुरु हम्मद सईद अशरफ मज़ंधारानी थे, जो खुद एक फारसी कवि थे, इस तरह से राजकुमारी में कविता, शेरो-शायरियों की ओर लगाव बढ़ा।

 

वे काफी कम उम्र में अपने महल की विशाल लाइब्रेरी खंगाल चुकी थीं और फिर उनके लिए बाहर से भी किताबें मँगवाई जाने लगीं। औरंगजेब को काफी सादगी से रहती इस बुद्धिमती बेटी से बहुत लगाव था। वे उसे चार लाख सोने की अशर्फियाँ ऊपरी खर्च के तौर पर दिया करते थे। इन्हीं पैसों से जेबुन्निसा ने ग्रंथों का आम भाषा में अनुवाद भी शुरू करवा दिया।

 

वक्त के साथ जेबुन्निसा खुद बेहतरीन शायरा के तौर पर उभरीं। यहाँ तक कि उन्हें मुशायरों में बुलाया जाने लगा। सख्त और काफी हद तक कट्टर पिता को ये मंजूर नहीं था। लिहाजा बेटी छिपकर महफिलों में शिरकत करने लगी। जेबुन्निसा फारसी में कविताएँ लिखतीं और अपना नाम छिपाने के लिए ‘मख़फ़ी’ नाम से लिखा करती थीं।

 

जेबुन्निसा को हिंदू बुंदेला महाराज छत्रसाल से ऐसी ही किसी महफ़िल में जाते हुए प्रेम हो गया था। बुंदेला महाराज से औरंगजेब की कट्टर दुश्मनी थी और धार्मिक तौर पर बेहद कट्टर औरंगजेब को किसी हाल में ये बात मंजूर नहीं थी, कि उनके परिवार का कोई सदस्य हिंदू राजा से जुड़े, इसलिए वे अपनी बेटी पर नाराज हो गए, काफी समझाइश के बाद भी जेबुन्निसा जब नहीं मानीं तो पिता औरंगजेब ने उन्हें दिल्ली के सलीमगढ़ किले में नजरबंद करवा दिया।

 

जेबुन्निसा किले में कैद होकर भी गजलें, शेर और रुबाइयाँ लिखती रहीं। बीस सालों की कैद के दौरान उन्होंने लगभग 5000 रचनाएँ कीं, जिसका संकलन उनकी मौत के बाद दीवान-ए-मख्फी के नाम से छपा। आज भी ब्रिटिश लाइब्रेरी और नेशनल लाइब्रेरी ऑफ पेरिस में राजकुमारी की लिखी पांडुलिपियाँ सहेजी हुईं हैं।

 

26 मई, 1702 में राजकुमारी की मौत के बाद उन्हें काबुली गेट के बाहर तीस हजारा बाग में दफनाया गया।

 

सत्रहवीं सदी की बेहतरीन कवयित्री ज़ेबुन्निसा उर्फ मखफी की कहानी मध्यकाल की सबसे त्रासद कहानियों में से एक रही है।


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