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अन्नदाता के चित्कारों से देश में हो रहा हाहाकार | ऑनलाइन बुलेटिन

©डॉ. कान्ति लाल यादव

परिचय– सहायक आचार्य, उदयपुर, राजस्थान.


 

 

जिसका पसीना मेहनत से ओस बन उड़ जाता है।

सर्दी, गर्मी, बरसात को हंसकर जो सह लेता है।

‌‌अकसर गरीबी जिसके आंसू पीती रहती है।

अकाल सदा उसका सीना कंपाता रहता है ।

धरती के सीने को चीर अन्न उगा जो देता है।

सूरज की पहली किरण से अंतिम किरण तक

धरती मां का वो श्रृंगार सदा करता रहता है।

जीवन अपना यज्ञमय कर, औरों के हित

अपने प्राणों का जो हवन कर देता है।

आंसू और पसीने को जब वो एक-एक कर देता है।

तब हर पौधे में जान फूंक कर खुशियों को भर देता है।

मां धरती की चुनरी बन हरियाली छा जाती है।

अपने तन को पीस-पीसकर जब खेत को सींच देता है।

दिल का गहरा दर्द भरा घाव तब होती है कांति,

जब बिन मोलभाव किए माल कोई उड़ा ले जाता है।

खुशियां सारी बह जाती है उमड़ती अनगढ़बाढ़ में।

अकाल में हरियाली सुख कर उड़ जाती है वीरान में।

महंगाई सा पीनी बनकर तुझ पर डसती रहती है।

विपत्तियों का पहाड़ खड़ा है सदा तेरे जी-जंजाल पर।

उम्मीदें, कर्ज की दीवारों में ढह जाती है

मुर्दा ढक जाता है जैसे कब्र की गहराई में।

धरती पुत्र धरती में बेमौत समा क्यों जाता है?

जब भाग्य विधाता भी चूक न्याय की कर देता है।

सबके जीवन को पालने वाला क्यों?

एक दिन फांसी पर झूल जाता है?

सरकारें भी क्यों नहीं सुन पाती हैं,

उसकी करुण पुकार को?

योजना भी अर्थहीन हो जाती है व्यवहार को।

अन्नदाता की चित्कारों से हुआ है देश में हाहाकार।

जनता भी अब चीख रही है, सुन उसकी चित्कार को।

खुद भूखा-प्यासा रह लेता है औरों के पेट भरने को।

बिन ब्याही बेटी रह गई बेटा बेरोजगार है।

पत्नी के जेवर बिक गए, कर्ज चुका नहीं अधूरा है।

खेत भी गिरवी पड़ा है अच्छे दिनों की आस में।

अर्थव्यवस्था हंस रही है, कृषि प्रधान देश के किसान पर

कैसे राष्ट्र नाज करे जब व्याकुल हुआ आज किसान पर

खुद को न्यौछावर कर देता है औरों के कष्ट हरने को।

पेड़-पौधे भी मुरझा रहे हैं देख तेरे अनगिनत दर्द को।

गाय-बैल भी अब रो रहे हैं बेमौत तेरी मौत पर।

आज जमाना मौन हुआ है देख तेरे दु:ख-दर्द पर।


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