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अनचाही मजबूरियाँ | ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़

परिचय– मुंबई, आईटी सॉफ्टवेयर इंजीनियर.


 

अनचाही मजबूरी हर बार दस्तक देती है,

कभी बेबसी तो कभी अश्क़ पिरोती है,

हालात ही इन मजबूरियों को मजबूर कर,

हमारे दामन में, डाल देती है।

 

मुहब्बत के कसीदे, अधूरे रहे,

जब ग़रीबी की मजबूरियां गिना दी,

मुहब्बत को दफ़न कर के,

अपने ही हाथों से आग लगा दी।

 

 

ग़रीबी ने देखो क्या सितम ढाया,

मजबूरी में वैश्या बन के रह गई,

हर रात वो बनती है नई दुल्हन,

सुबह एक दाग़ बनके सह गयी।

 

जो डरता रहा था मौत से,

वो मौत को गले लगा गया,

अनचाही मजबूरी, मजबूर न कर,

किसी को तू ख़ाक में मिला गया।

 

 

अक्सर मजबूरियों का ,

फ़ायदा उठाते देखा है,

लगी है आग बस्ती में,

लोगों को चूल्हा जलाते देखा है।

 

दस्तक न दे अनचाही मजबूरी,

यूँ ज़िन्दगी में बार-बार,

इरादे मजबूत हैं यहाँ,

हिम्मत से हम करेंगे पलटवार।


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