.

लाल मिर्च और हरी मिर्च l ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई


 

लाल मिर्च :

सुनो, हरी मिर्च एक बात तुझसे है कहना।

हूँ उलझन में , ज़रा सुलझा दो बहना।

तुम भी तीख़ी, मैं भी तीख़ी,

फिर ये रंग हरा और लाल क्यों है ???

दाने हम दोनों के हैं छोटे-छोटे

फिर इन रंगों पे बवाल क्यों है ???

 

हरी मिर्च :

समय जितना बदला, नहीं बदला हमारा वजुद।

रंग में भला क्या रखा, दोनों में तीखापन मौजूद।

 

लाल मिर्च :

इंसानों के बीच भला क्यों होता है भेद,

कोई लाल, कोई हरा, कोई माँगे सफ़ेद।

क्या बंटते-बंटते हम भी बंट जाएँगे,

मुझे कोई ले जाएगा, तुम्हें कोई ले जाएँगे।

 

हरी मिर्च :

अब समझी, तुम हो क्यों इतना परेशान,

तुम्हें क्या मालूम, आख़िर ये कैसा है इंसान।

न सूरज बदला, न चाँद बदला, न बदली पहचान,

हवा जाने किस ओर बहने लगी बदल गया इंसान।

न रंग है इसका, न कोई अपना रूप,

मिट्टी के पुतले को, न बदरा भाए न धूप।

 

रंग का भेद डाल, आपस में लड़ जाता है,

जीवन को नरक बना कर स्वर्ग पहुँच जाता है।

जीवन को नरक बना कर स्वर्ग पहुँच जाता है।


Back to top button