गुमराह…
©भरत मल्होत्रा
ये बात दीगर है कि चारागर को खुद ही पता न हो
कोई दर्द ऐसा बना नहीं जिसकी जहां में दवा न हो
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चाहता हूँ मैं इश्क़ में आए मेरे ऐसा मुकाम
तू चाहे जितने कर सितम मुझे तुझसे कोई गिला न हो
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दुश्मन भी होते हैं ज़रूरी दोस्तों के साथ – साथ
वहां कैसे शमा जलाऊँ मैं जहाँ दूर-दूर तक हवा न हो
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अंदर से जो होते हैं खाली, शोर करते हैं बहुत
मुमकिन नहीं कोई शजर फलदार हो और झुका न हो
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गुमराह होकर ही मिलेगा रास्ता तुमको नया
वो पाएगा क्या मंज़िलें घर से ही जो निकला न हो
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