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गुमराह…

©भरत मल्होत्रा

परिचय- मुंबई, महाराष्ट्र


 

ये बात दीगर है कि चारागर को खुद ही पता न हो

कोई दर्द ऐसा बना नहीं जिसकी जहां में दवा न हो

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चाहता हूँ मैं इश्क़ में आए मेरे ऐसा मुकाम

तू चाहे जितने कर सितम मुझे तुझसे कोई गिला न हो

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दुश्मन भी होते हैं ज़रूरी दोस्तों के साथ – साथ

वहां कैसे शमा जलाऊँ मैं जहाँ दूर-दूर तक हवा न हो

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अंदर से जो होते हैं खाली, शोर करते हैं बहुत

मुमकिन नहीं कोई शजर फलदार हो और झुका न हो

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गुमराह होकर ही मिलेगा रास्ता तुमको नया

वो पाएगा क्या मंज़िलें घर से ही जो निकला न हो

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