बस यूं ही…

©पद्म मुख पंडा
उधेड़बुन मन से कभी हटती नहीं है,
सोचता रहता हूं, रात कटती नहीं है!
आख़िर क्यों, मैं विचार मग्न रहता हूं?
त्रासदी संसार की, किसलिए सहता हूं?
सेवा निवृत्त वरिष्ठ नागरिक बन गया हूं,
पता है हैसियत मेरी कि मैं क्या हूं?
फिर भी, जब कुछ अटपटा लगता है,
विरोध करता हूं, कि माजरा क्या है?
हिसाबी हूं, हर चीज का अपना महत्व है!
किसी एक का नहीं, सबका ही स्वत्व है!
पद की गरिमा, बनाए रखने वाली बात है,
मान लीजिए, यह एक क्रांतिकारी शुरुआत है!
जनता को अपनी मेहनत का प्रतिफल मिले,
सत्य और न्याय व्यवस्था को नैतिक बल मिले!
जिनके हाथों में सौंपा, हमने देश का खजाना,
उसे पड़ेगा, सभी खर्चों का भी हिसाब बताना!
जनता को मूर्ख समझना, अब छोड़ दें,
कर्त्तव्य पालन के लिए, खुद को जोड़ दें!
ऐसी ही चाहत और विचारों से, गुजर रहा हूं,
मुझे यकीन है कि मैं यह अच्छा ही कर रहा हूं!

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