शरारतों का दौर था | ऑनलाइन बुलेटिन
©राजेश मधुकर (शिक्षक)
वो भी क्या शरारतों का दौर था
रोज तालाबों में नहाने जाना
दोस्तों के फटे कपड़े छुपाना
फिर उसको रोज-रोज चिढ़ाना
नहीं छुपाया कह उनको लड़ाना
छोटी सी बात को ज्यादा बढ़ाना
उस समय मज़ा ही कुछ और था
वो भी क्या शरारतों का दौर था
रोज तैयार हो विद्यालय जाना
देरी होने पर रोज बहाने बनाना
जोर-जोर से शिक्षक का पढ़ाना
पढ़ाते वक्त कक्षा में खुशफुसाना
कौन कहते ही दूसरों को फसाना
उस समय मज़ा ही कुछ और था
वो भी क्या शरारतों का दौर था
मस्ती भरे स्वर में बेसुरे सुर गाना
कुर्सी-टेबल बैंड की तरह बजाना
शोर सुन शिक्षकों का आ जाना
काम नहीं आता कोई भी बहाना
फिर तो बैंड की तरह मार खाना
उस समय मज़ा ही कुछ और था
वो भी क्या शरारतों का दौर था
मित्रों के कान के पास चिल्लाना
आवाज सुन उनका यूँ डर जाना
और फिर हम पर खूब झल्लाना
सुबह से लेकर शाम तक खेलना
धूप,छाँव या बरसात सब झेलना
उस समय मज़ा ही कुछ और था
वो भी क्या शरारतों का दौर था
ये भी पढ़ें: