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दीपावली के दीपों की रोशनी | ऑनलाइन बुलेटिन

©गायकवाड विलास

परिचय- लातूर, महाराष्ट्र


 

(छंदमुक्त काव्य रचना)

 

खुशियां औरों से बांटकर ये त्यौहार तुम मनाओ,

कभी तो अपने मन के दीप तुम जलाओ।

जिनके जलते नहीं चूल्हे यहां पर हर दिन,

उनके आंगन में भी तुम कभी रोशनी भर जाओ।

 

दीपावली के शुभ अवसर पर तुम सभी,

मिटाओ औरों के जीवन में फैला हुआ अंधकार।

देखो रोटी के लिए भी है यहां पर कितनी मारामार,

और ना जाने कितने सारे गमों से भरा हुआ है ये सारा संसार।

 

हर आंगन में यहां होती नहीं है सुखों की बरसात,

उनके लिए आंसू ही बन बैठे है जैसे कोई सौगात।

फिर भी वो खुश रहते है अपने जीवन में यहां पर,

देखो कभी उनका ये अश्कों से भरा बेदर्दी का सफर।

 

जहां जलते हैं ख्वाब आंगन में हर दिन,

उनके जीवन में कभी दीपावली के दीप तुम बन जाओ।

उन्हीं के लिए बनकर तुम मसीहा कभी कभी,

थोड़ी सी खुशियां तुम उनके आंगन में भी सजाओ।

 

मानवता का भाईचारा निभाकर इस त्यौहार में,

बांटकर मिठाई इन्सानियत का धर्म तुम निभाओ।

सद्भावना, संस्कार, नीति और प्यार के दीपक जलाकर मन मन में,

इस दीपावली को तुम नए तरीके से यहां मनाओ।

 

महंगाई की आग में जल गए ख्वाब उनके सभी,

रोटी ही अब उनका ख्वाब बनकर रह गई है।

फिर उनके घरों में कैसे जलेंगे दीपावली के दीप यहां पर,

ऐॆसे लोगों के जीवन में क्या दशहरा और दिवाली है।

 

अब जगमगा उठेंगे यहां गांव-गांव और शहर-शहर,

मगर कईयों की जिंदगी ही बन बैठी है उनके लिए मुसीबतों का कहर।

जिनके घरों में चूल्हे की रोशनी भी दिखती है कभी-कभी,

वहां दीपावली के दीपों की रोशनी भी एक सपना बनकर रह गई है।

 

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