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मानसिकता | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

©संतोषी देवी

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


 

 

देखती हूँ कभी कभार,

उमड़ते स्याह बादलों को,

कहीं कोई सूरज,

आभा बिखराता दिखें,

किसी जात बिरादरी का।

निहारती हूँ कभी कभार,

अमावस की रात को।

दौड़ाती हूँ नजर इधर-उधर,

कहीं कोई चांद

उड़ेलता दिखे उजास,

किसी जात बिरादरी का।

आजमाती हूँ कभी कभार,

उस शून्यता को।

डालती हूँ दृष्टि दूर तक,

कहीं कोई झुकता दिखे आकाश,

किसी जात बिरादरी का।

खोजती हूँ कभी कभार,

पतझड़ी मौसम को।

कहीं महकता दिखे बन बसंत,

किसी जात बिरादरी का।

लेकिन ऐसा हुआ नहीं

जातीय आक्रांत से,

भयभीत,

मैंने एक बार नहीं,

बार-बार देखा परखा,

हवाओं को, फूलों को,

धरती को, आसमाँ को, चांद को,

सूरज को, पानी को।

जिन्होंने दिया है जीवन,

समताभाव से,

तुम्हें भी और मुझे भी।

वह कैसे होगा भला,

किसी जात बिरादरी का

फिर क्यों घर कर गई,

संकीर्ण मानसिकता,

जिसने ले रखा हैं

किसी की जात-धर्म,

निर्धारित करने का ठेका।

 

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