मानसिकता | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन
©संतोषी देवी
उमड़ते स्याह बादलों को,
कहीं कोई सूरज,
आभा बिखराता दिखें,
किसी जात बिरादरी का।
निहारती हूँ कभी कभार,
अमावस की रात को।
कहीं कोई चांद
उड़ेलता दिखे उजास,
किसी जात बिरादरी का।
आजमाती हूँ कभी कभार,
उस शून्यता को।
डालती हूँ दृष्टि दूर तक,
कहीं कोई झुकता दिखे आकाश,
किसी जात बिरादरी का।
खोजती हूँ कभी कभार,
पतझड़ी मौसम को।
किसी जात बिरादरी का।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं
जातीय आक्रांत से,
भयभीत,
मैंने एक बार नहीं,
बार-बार देखा परखा,
हवाओं को, फूलों को,
सूरज को, पानी को।
जिन्होंने दिया है जीवन,
समताभाव से,
तुम्हें भी और मुझे भी।
वह कैसे होगा भला,
फिर क्यों घर कर गई,
संकीर्ण मानसिकता,
जिसने ले रखा हैं
किसी की जात-धर्म,
निर्धारित करने का ठेका।