खंडन करो …
©सरस्वती साहू, (शिक्षिका), बिलासपुर, छत्तीसगढ़
खंडन करो उन प्रथाओं का
जो प्रथा नहीं समाज पर कलंक है
जो बहू और बेटी के लिए
प्रथा के नाम पर माथे का कलंक है
प्रथा दहेज का सदियों पुराना है
पर तब उपहार था
प्रेम से अर्पित किया गया
माता-पिता का प्यार था
आज वही प्रथा निरंतर कहर ढा रहा है
व्यापार की तरह मोल किया जा रहा है
दीन, दीनता के शरण लिए जा रहे
अमीर, अमीरी के शिखर चढ़े जा रहे
ऊँच-नीच का भेद विशाल बन गया
गरीबों के लिए ये प्रथा जंजाल बन गया
मोह, लालच और बड़ाई से
पनपती है कुप्रथा
समझदार बन खंडन करो
उजाड़ देती है घर यह दुर्प्रथा
दहेज से प्रताड़ित होती बहू, बेटियाँ
पांव पर लग जाती है रिवाज की बेड़ियां
जब तक सहती, हर रोज घुटती है
दहेज के ताने से हर रोज टुटती है
कितनो की मान मर्यादा लुट गई
कितनो की तन से जानें छूट गई
दहेज की कुप्रथा का खंडन करो
कन्या दान है अनमोल, सहृदय वरन करो …