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मेरे अहसास …

©ममता आंबेडकर

परिचय- गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश


 

बरसों के जंग की थकन खा गई मुझे।

जख्म तो भर गया फिर भी काटो सी

चुभन हो रही थी मुझे।

 

रातों को दर्द भरी यादों के पन्ने पलट रही थी।

सूरज निकला तो गहरी नींद आ गई मुझे।

 

जिंदगी ने मुश्किलों में रखी ना मेरी लाज।

अजनबी कहकर बीच सफर में छोड़ गई मुझे।

 

मैं  बिखर सी गई बारिश के पानी की  तरह।

दुनिया पैरों में कुचलती रही कीचड़ की तरह।

 

सागर की लहरें भी नहीं समेत पाई मुझे।

साहिल की शरद ऋतु में ही दफन कर गई मुझे।

 

कागज का चांद रख दिया अपनों ने मेमेरे हाथ में।

पहले ही सफर में अंधेरे का एहसास हो गया मुझे।

 

जब भीम की कलम का एहसास हुआ मुझे।

तो कोरे कागज पर उंगली चली तो गज़ल आ

गई मुझे।

 

 

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