बयाँ | ऑनलाइन बुलेटिन

©आर.पी.आनंद (शिक्षक)
हकीकत बयाँ करती है लाश बनकर जिंदगी,
फजीहत बयाँ करती है नाश बनकर जिंदगी।
बाज आता नहीं है इंसाँ खुदा बनने से अक्सर,
नसीहत बयाँ करती है निराश बनकर ज़िंदगी।
बंद कमरे में यूँ हमेशा फड़फड़ाता है आदमी ,
मुसीबत बयाँ करती है तराश बनकर जिंदगी ।
जबानी जुमले बदल जाएंगे खाक-ए-सूरत में,
बस मय्यत बयाँ करती है घास बनकर जिंदगी ।
तीखीआवाज में तो नापता है ऊँचाई कौम की ,
बगावत बयाँ करती है प्यास बनकर जिंदगी।
मौत के करीब से भी डींग हाँकता है आदमी,
मसीहत बयाँ करती हैआकाश बनकर ज़िंदगी।
ज़ख्म देता है नासमझ नाजुक दिल को हमेशा।
गनीमत बयाँ करती है कयास बनकर ज़िंदगी।
बराबरी से आती है समझदारी दिल में ‘आनंद’ ,
इंसानियत बयाँ करती है भास बनकर ज़िंदगी।