आज बता दो तुम नारी हो | ऑनलाइन बुलेटिन
©सुरेंद्र प्रजापति
परिचय– गया, बिहार.
यश! क्या गाऊं? दिलाऊं
किसे अधिकार, सम्मान
हर ओर द्रौपदी तड़प रही
है, लज्जित हिंदुस्तान!!
लज्जा वसन को बेच,
पीड़ा में जीने वाली,
नित्य तृप्ति का वस्तु,
दर्द विष को पीने वाली।
तुम घर की मर्यादा हो,
पर क्यों मर्यादित हो,
तुम करुणा विनय कि मुर्ति,
पर क्यों फिर शापित हो।
तुम घर की लक्ष्मी,
रौनक हो, हो साज सृंगार,
पर हंसी मौसम में फूटता,
विरह वेदना का चीत्कार।
दयामयी तुम, क्षमामयी
हर सुख को देनेवाली,
मातृत्व, सतीत्व की रक्षा कर,
परिवार को खेने वाली।
तू अन्याय को जीने वाली,
ये तेरी निर्बलता है,
मायूस हो आंसू पीने वाली,
ये तेरी कृपणता है।
गर आजादी की बात करें,
तो वह भी लेगा दाम,
तुम उज्ज्वल किरणों को देखो,
जहां न होती शाम।
मांगे से अधिकार न मिलता,
याद करो श्रीराम,
तब क्रुद्ध हो तरकस खींचा,
दिया समुद्र सम्मान।
आज जता दो, तुम नारी हो
जग में सृजन करने वाली,
और रणचंडी, दुर्गा बन
दुष्टों का दलन करने वाली।
निज सतीत्व की रक्षा
करती सीता सुकुमारी थी,
कोटि शीश उड़ा दिया
लक्ष्मी भी एक नारी थी।
पोंछो नीर, उठो बढ़ो
और कौशल दिखलाओ,
इन जीवित मुर्दों पर
शोधित वाण चलाओ।
फूलों के मखमली सेज
पर ओ चिपकने वाले,
ओ श्रृंगार के साधक,
ओ प्रेमी पागल मतवाले।
सकल देश में अन्याय का,
हल्ला बोल उठा है,
न्यायालय से मिले राहत,
कोई दला बोल उठा है।
रेशमी पर्दे के पीछे से,
जब-जब चीखे चीत्कार,
तब-तब देव तू भी देखेगा
ये मरघट सा संसार।
आज सुहागिन की पीड़ा में
अंतःकरण जलता है,
बहन दिखा दो अम्बर में,
अंतर में युद्ध पलता है।