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आखिर जातियां क्यों नहीं टूट पातीं ? | ऑनलाइन बुलेटिन

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय – गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में निवास, शिक्षा- एमए, कविता, कहानी, लधुकथा, लेख, समीक्षा, आदि विषयों पर लेखन में रुचि. विभिन्न पुस्तकें प्रकाशित, विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं का संपादन, राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न सम्मान से सम्मानित, रास्ट्रीय स्तर की पत्र- पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन.


 

मेरिका में हर सातवां आदमी अपनी नस्ल या मूल के बाहर शादी करता है। भारत में कितने लोग अंतरजातीय शादियां करते हैं, यह हम नहीं जान सकते क्योंकि भारतीय जनगणना में जाति की गिनती ही नहीं होती हैं। अगर आप शहरों में हैं तो अपने निजी अनुभवों से और आस- पास तथा काम की जगह से मिली जानकारियों के आधार पर अनुमान लगा सकते हैं कि अंतरजातीय शादियां बढ़ रही है, लेकिन भारत में अंतरजातीय शादियों की सच्चाई जानने का किसी के पास कोई जरिया नहीं है।

 

जातियां अब भी टूटी नहीं है, बनी हुई हैं। हर धर्म में। हर समाज में और हर व्यक्ति के भीतर। जातियों को तोड़ने के अब तक जो भी प्रयास किए गए वे नाकाफी ही साबित हुए। आये दिन कोई न कोई ऐसी खबर हमारे बीच से होकर गुजर ही जाती है कि कहीं कोई दलित- सवर्णों का शिकार हुआ है, प्रेम-प्रसंग, रास्ते और जमीन से जुड़े ऐसे न जाने कितने मामले हैं, जहां सवर्णों की पंचायत ही नहीं, हमारे देश के वर्तमान दौर में न्यायालय भी जाति को आधार बनाकर हम पर अपना ही फैसला सुनाती हैं।

 

जाति अस्मिता की खातिर किसी दलित की जान लेना सवर्णों को इसलिए नहीं अखरता क्योंकि जातिविहीन व्यवस्था सवर्णों को स्वीकार्य नहीं है। हमारे देश में खड़ी सवर्णों की पंचायतें यही तो कर रही हैं। सवर्णों की पंचायतें इस कदर जातिवादी हैं कि उनका जाति – अभिमान व्यक्ति की मौत से शांत होता हैं, पिछले दिनों कई दलितों की मौत भी जाति-दंभ से जुड़ा लगता है जो कई सारे सवाल और मुद्दे सामने आते हैं। जिन पर हमें न सिर्फ सोचने बल्कि उन्हें व्यवहार में लाने की भी जरूरत है।

 

असल में, जातियों के न टूटने का सबसे बड़ा कारण है, सवर्णों की सोच, उनकी वैचारिकता का सीमित होते जाना। सवर्ण अपने – अपने जाति-दंभों से बाहर निकालकर कुछ सोचना- समझना ही नहीं चाहता है। पता नहीं क्यों और कैसा अभिमान है, हमें अपनी जातियों पर कि उसका असर गाहे- बगाहे सर चढ़कर बोलने लगता है।

 

पलभर में पंचायतें या सवर्ण परिवार अपना फैसला ले लेते हैं और दलित समाज के किसी को भी मौत की नींद सुला दिया जाता है। विडंबना यह है इन बर्बर हत्याओं पर हमारी सरकार, न्याय-व्यवस्था और सामाजिक संगठन चुप्पी साधे रहते हैं।

 

कोई सख्त कार्यवाही नहीं की जाती, ऐसी हिंसक सवर्णों की पंचायतों और परिवारों के खिलाफ। आखिर ये सवर्ण पंचायत होती कौन है, अपने हिसाब से अपने ही निर्णय सुनाने या लेने वाली? फिर इनमें और तालिबानी व्यवस्था में तो कोई अंतर ही नहीं रह जाता।

 

भारतीय संविधान हमें अपने हिसाब से सोचने- समझने और कुछ करने बनने की सुविधाएं देता है। इसी का फायदा उठाकर दलित समाज के कुछ ही लोग पढ़ लिखकर नौकरी करने लगे, अपने जिन्दगी का फैसला खुद करने लगे। गंदगी से निकल कर साफ सुथरा जिन्दगी जीने लगे।

 

झोपड़ी से पक्का मकान में रहने लगे हैं, पशु की जिंदगी से ऊपर होकर एक इंसान की जिंदगी जिऐ तो, ये जातिवादी मानसिकता के सवर्णों को स्वीकार्य नहीं हो पा रहा है।

 

इसका मतलब यह नहीं हो जाता है कि आप दलितों के प्रति बर्बर पशु (जंगली जानवर) बन जाएं। किसी की भी जिंदगी का फैसला करने का अधिकार ले ले, ऐ भारतीय संविधान के खिलाफ हैं। इस लोकतंत्र में जितना बोलन, सोचने के साथ ही साथ जीने के लिए आप स्वतंत्र हैं, उतना ही दलित समाज भी स्वतंत्र हैं ।

 

आखिर अपनी सोच को दुसरे पर थोपने वाले आप होते कौन हैं ? प्रेम को जातियों के बंधन में बांधकर आप उसकी पवित्रता को नष्ट करने वाले कौन हैं ? समाज अब भी क्यों जाति -व्यवस्था के जाल में फंसा हुआ है ? आखिर यह आधुनिकता अब तक क्यों जाति-दंभ को नहीं तोड़ पाई हैं ? सिर्फ समाजवाद का लबादा ओढ़ लेने या चांद पर घर बना लेने का सपना देखभर लेने से समाज या व्यवस्था आधुनिक नहीं हो सकता है।

 

आधुनिकता बहुत हद तक निर्भर करती है, हमारी खुली सोच और सहज व्यवहार पर। अगर यह आधुनिकता खुले विचार और सोच के स्तर पर हैं, तब तो ठीक वरना ऐसी आधुनिकता का कोई मतलब नहीं रह जाता।

 

भारत में जाति को तोड़ने के लिए आवश्यक है कि एक बार जाति के बारे में हर तरह के जरूरी आंकड़े जुटाए जाएं और फिर एक आयोग बनाकर इस बात के उपाय ढूंढे जाएं कि जाति को किस तरह खत्म किया जा सकता है। इसके लिए एक सुझाव तो यह है कि अंतरजातीय शादी करने वालों को और उनमें भी सवर्णों और निम्न वर्गो के बीच शादी करने वालों को नौकरी से लेकर बैंक लोन तक में विशेष अवसर दिए जाएं।

 

दूसरा उपाय समाजवादी विचारक ” राम मनोहर लोहिया ” ने काफी पहले सुझाव दिया था। उनका सुझाव था कि नीच माने जाने वाले कामों के लिए सैलरी काफी ऊंची कर दी जाएं, इस पर देश को एक बार गंभीरता से विचार करना चाहिए।

 

अगर सफाई कर्मचारी की तनख्वाह गजटेड अफसर या कालेज के शिक्षक के बराबर कर दी जाएं तो न तो सफाई का काम छोटा रह जाएगा और न ही उस काम को करने वाला जाति का कर्म से जो रिश्ता है और उसके आधार पर ऊंच और नीच का जो भेद है, उसे आर्थिक उपायों से आसानी से तोड़ा जा सकता है।


नोट :– उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ‘online bulletin dot in’ इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.


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