ज़ख्म और मरहम के बीच वार्तालाप | ऑनलाइन बुलेटिन
©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़
परिचय- मुंबई, आईटी टीम लीडर
ज़ख्म :- न इब्तिदा न इंतहा मेरे ज़ख्म की
एक मरहम है जो नाम किए जाता है।
मरहम :- तेरी इब्तिदा न सही इंतहा हूं मैं,
भला तू क्यों मुझे बदनाम किए जाता है।
ज़ख्म :- तू तो उसी जगह मरहम लगाता है,
लेकिन उन ज़ख्मों का क्या जो दिखाई नही देता।
मरहम :- ज़ख्म कितना भी गहरा,पुराना या दिखाई न देने वाला हो। मरहम ही तो तबीब है।
ज़ख्म :- मुझे तो कोई याद नहीं करता सब तुम्हे ही याद करते हैं।
मरहम :- तुम में चिड़चिड़ापन आ गया है।
तुम अगर न होते तो इंसान ख़ुद को भगवान समझने लगता।
ज़ख्म:- (हामी भरते हुए) तुम मुझे झूठी तसल्ली देने लगे।
मरहम :- नहीं मैंने सच कहा है।
ख़ुद को तुम अगर नहीं समझ पाओगे तो ख़ुद ही निस्त व नाबूद हो जाओगे।
ज़ख्म :- ये बातें समझ ही नहीं आई।
मरहम :- सिर्फ़ इतना कहना हैं।
तुम वो हो जिसने हर इंसान को उसकी औकात में रखा है,
अगर तुम न होते तो मेरा क्या वजूद ? मेरी पहचान तुम से है।
ज़ख्म :- ये सुनने में अच्छा लगा (आंखों में आसूं भरते हुए)
लेकिन हर कोई मुझे कोसता है, बुरा कहता है।
मरहम :- कुछ तो लोग कहेंगे उनका काम है कहना। ये सोच कर तुम न रोने लगना।
ज़ख्म :- मैं बेचैन हूं, मुझे सुकून चाहिए।
मरहम :- तुम्हारा सुकून इसी में है जब लोग तुम्हें अपनाकर
आगे की ओर कदम बढ़ाएं और जीना सीख लें।
ज़ख्म:- कुछ लोग तो नमक छिड़कने का काम करते हैं तो बहुत तकलीफ़ होती है।
मरहम :- लोगों को हम नहीं समझा सकते।
इस्तेमाल के बाद मुझे भी फेंक देते हैं या मेरी कद्र ही नहीं करते।
ज़ख्म :- तुम्हारी भी कद्र नही करते। (अफसोस जताते हुए)
फिर आज मुझे अफसोस खुद पे नहीं इंसान की सोच पे है।
मरहम :- यही मैंने समझाना चाहा पर तुम अब समझ पाए।
ज़ख्म :- दर्द का हद से गुजरना भी दावा है।
मरहम :- जहां मरहम दावा न हो वहां दुआ है।