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महिला सशक्तिकरण की प्रेरक सख्सियत; मैडम क्यूरी एवं सावित्री देवी फुले | newsforum

डॉ. लक्ष्मी नारायण सिंह, भरतपुर, राजस्थान

 


 

अकादमिक जगत की बहस में पड़ने के बजाय शहरी उच्च शिक्षित नौकरी-पेशा महिलाओं के मुकाबले कम पढ़ी-लिखी ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं के सशक्तिकरण को समझने की कोशिश करते हैं।

 

महिला सशक्तिकरण के मापदंड में प्रमुख अवयव क्या होने चाहिए, मिशाल के तौर पर उनकी निर्णय लेने की क्षमता, सत्ता में हिस्सेदारी, कठिन परिश्रम करने की हिम्मत, विषम परिस्थितियों में टिके रहने की उनकी क्षमता इत्यादि। अगर इन मापदंडों को आधार बनाकर देखें तो प्रत्येक आम महिला का जीवन लेबर पैन से लेकर परिवार के भरण-पोषण हेतु देनिन्दनी निर्णयों तक बहुत ही प्रेरणादायक हो सकता है, फिर क्या वजह है की हमें महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर बात करने की जरूरत पड़ी ? और क्या इसमें बुनियादी बदलाव किया जा सकता है ? हमारे सामाजिक जीवन में कार्यों की महत्ता व उपयोगिता, निर्णय क्षमता, सत्ता में भागीदारी, ये सब हमारे सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है जिसे अकादमिक जगत की भाषा में हम “कल्चरल कंस्ट्रक्ट” कहते हैं।

 

जब घर में दो लगभग एक उम्र के बच्चे एक साथ पलते हैं; उदारणार्थ एक बेटा व एक बेटी, तो उनके पालन-पोषण में हमारे सामाजिक परिवेश के मानिंद घटी कुछ बातें दीर्घकालीन बड़े परिवर्तनों को जन्म दे देतीं हैं, मिशाल के तौर पर, बेटा-बेटी एक उम्र के हैं, फिर भी पानी-पीने का तरीका, हंसने का तरीका, उनके खेल चुनने का प्रकार आदि के माध्यम से हम बेटी को टोक देते हैं जबकि बेटा स्वछन्द व स्वतंत्र रहता है। ऐसा ही बॉडी बिल्डिंग के लिए है, हमारा सामाजिक परिवेश ने हमें सिखाया कि महिलाएं ममतामयी स्वरुप कोमल, सुडोल आकर्षक दिखना है, मजबूत मस्कुलर बॉडी बनाना महिलाओं का काम नहीं है, जबकि ममतामयी स्वरुप खुद को अपने बच्चे की रक्षा व उसके सर्वागींण विकास का घोतक होना चाहिए था। जिसके फलस्वरूप हम महिलाओं को पुरुषों के समान ही मजबूत व सुदृढ़ बॉडी बनाने के लिए प्रेरित कर सकते थे। हमने इसके सर्वथा विपरीत कुछ मिथ्या धारणाएं जोड़ दी, अर्थात मासिक धर्म व महिलाओं की कोमलता। अर्थात प्रकृति ने महिलाओं को ऐसा बनाया है लेकिन आज महिलाएं अपनी उपलब्धियों से नित नई उचाईयों को छू रहीं हैं और उनके प्रति बनी मिथ्या धारणाएं लगातार टूट रहीं हैं।

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दो महिलाओं के जीवन संघर्षों से इसे समझ सकते हैं। दुनिया की पहली महिला वैज्ञानिक व नोबेल विजेता मैडम क्यूरी व भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री देवी फुले। मैडम क्यूरी का जन्म पोलैंड के वारसा शहर में हुआ था तत्कालीन समाज में महिलाओं के शैक्षिक अधिकार सीमित थे, बचपन में ही उनकी मां का निधन हो गया था, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण पिता को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। इतनी विकट परिस्तिथियों में भी हार नहीं मानी, आगे की पढ़ाई जारी रखने हेतु बहन की मदद से वो पेरिस (फ्रांस) गईं। वहां से उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। मैडम क्यूरी ने रेडियोधर्मिता की खोज की, अपने पति पियरे क्यूरी के साथ मिलकर पोलेनियम व रेडियम जैसे तत्वों की खोज की, जिनसे बाद में भौतिकी के क्षेत्र में कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए जैसे की एक्स-रे मशीन का निर्माण, कैंसर आदि की चिकित्सा में प्रयुक्त दवाइयों का निर्माण। विज्ञान के क्षेत्र की इन्ही उपलब्धियों के लिए उन्हें दो बार नोबेल-पुरस्कार से नवाजा गया।

 

पहला नोबेल भौतिकी की क्षेत्र में 1903 में मिला, दूसरा नोबेल 1911 में रसायन-विज्ञान में मिला। नोबेल जितने वाली वे पहली महिला थी साथ ही प्रथम महिला जिन्हें दो बार इस सम्मान से नवाजा गया हो। यह कड़ी यही रुकी नहीं, उन्होंने मानव कल्याण की यह परम्परा अपनी बेटियों को भी दी, उनकी दो बेटियां थी आइरिन व इवी दोनों को भी बाद में नोबेल से सम्मानित किया गया था। आइरिन को रसायन के क्षेत्र में तो इवी को शांति व सद्भावना के लिए।

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दूसरा प्रेरणादायी जीवन संघर्ष भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री देवी फुले का है। सावत्री देवी का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र में हुआ था। माता-पिता का नाम खंडोजी व लक्ष्मी था। उनकी शादी ज्योतिबा फुले से 1840 में हुई थी, तत्कालीन भारतीय समाज में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं था, वे घर से बाहर कार्य के लिए नहीं जा सकती थी। ऐसी परिस्तिथियों में भी पति के साथ उन्होंने शिक्षा हासिल की व पहली महिला शिक्षिका होने की जिम्मेदारी स्वीकारी लेकिन तत्कालीन समाज में यह सब इतना आसान नहीं था उन्हें व ज्योतिबा को अपने क्रांतिकारी कार्यों के लिए घर से निकलना पड़ा। अपने शिक्षिका के कर्तव्य निर्वहन के लिए घर से स्कूल तक जाने के लिए उन्हें रोजाना बैग में तीन साड़ी रखनी पडती थी क्योंकि स्कूल के रास्ते में लोग उन पर गोबर, धूल, मिट्टी फेंकते थे, बाबजूद इसके उन्होंने अपने कर्तव्यों का सफलता के साथ निर्वहन किया व महिलाओं व शोषित-पिछड़ों के कल्याणार्थ लिए बहुत सारे स्कूल, छात्रावासों एवं आश्रमों आदि की स्थापना की।

 

महाराष्ट्र में फैले प्लेग महामारी के दौर में लोगों की सेवा करते हुए ही उन्होंने जीवन की अंतिम सांसे ली। इन प्रेरणादायक जीवन संघर्षों से हम सिख ले सकते हैं कि महिलाएं किसी भी तरह से कमतर नहीं है। अगर हम इस “कल्चरल कंस्ट्रक्ट” को ध्यान में रख कर अपने बच्चों की परिवरिश करें, सरकारी नीतियों का निर्माण करें और इसे ध्यान में रखकर उनके विकास को इससे बाधित न होने दे तो हम एक बड़ा परिवर्तन ला पायंगे और हमारी बेटियां एवं महिलाएं ज्यादा सशक्त होगी।


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