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कलम बहना | ऑनलाइन बुलेटिन

©हरीश पांडल, विचार क्रांति, बिलासपुर, छत्तीसगढ़


समाज सुधार में व्यस्त रहने वाले लेखकों, कलमकारों, साहित्यकारों के जीवनसाथी की व्यथा, जिसे मैंने अपने विचारों से व्यक्त करने की कोशिश की है।

 

समाज सुधार के

कार्यों में

हमेशा मशगुल

रहते हो,

साथ कहीं जाने

कहो तो,

समय नहीं है

कहते हो ,

हम तो परिवार के

हिस्से हैं

आपके जीवन के

किस्से हैं,

हमें भी कुछ तो

वक्त दे दो

शिकायत हमारे भी

दूर कर दो,

समय समाज को

अर्पित करते हो

वक्त अपने समर्पित

करते हो

समाज सुधार के

कार्यों में

मशगूल रहते हो,

* जीवन संगिनी क्या

कलम बन गई है?

जीवन साथी को दूर

कर रही है,

मुझे स्वीकार है

कलम बहना

तुम बन गई हो

उनका गहना

तुम उन्हें समाज में,

सम्मान दिला रही हो

फर्श को अर्श का

अहसास करा रही हो

धन्यवाद अदा करती हूं

कलम बहना

तुम जब से मेरे घर

में आई हो

घर के वातावरण को

तार्किक

और वैचारिक

बनाई हो

मुंह दिखलाई में, मैं

क्या दूं तुम्हें ?

अपना साथी सौंप

रहीं हूं।

जब समय मिले तो

लौटा देना,

इंतजार मैं कर लुंगी

समाज सुधार में

मशगूल रहते हैं वे

अब मैं ये ना कहुंगी

कलम बहना मैं भी

तुम्हारे साथ रह लुंगी

मैं भी साथ तुम्हारे

ही अब रह लुंगी …


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