उखाड़ फेंको ऐसी सियासतें…
©गायकवाड विलास
परिचय- मिलिंद महाविद्यालय, लातूर, महाराष्ट्र
ये खिला हुआ चमन कहीं उजड़ ना जाएं,आज इसी का डर लगता है,
ये कैसा कारवां है इन्सानों का,क्युं इतना टूटा टूटा सा लगता है।
कौन-सी चाहतें है मन में,कौन-सी आरजू लिए ये कारवां निकला है,
चारों ओर सन्नाटा,चारों ओर मायुसी ये कैसा दौर यहां निकला है।
नई बहती हवाओं ने कैसे उजाड़ दिया ये खिला हुआ चमन,
ये कौन-सा ज़हर है,जो दिलो-दिमाग में इतना घुल-मिल गया है।
जाति धर्मों का ये गर्द नशा,जब भी किसी जेहन में चढ़ जाता है,
तब ये इन्सान ही नहीं,बल्कि पूरा मुल्क ही पत्तों की तरह बिखर जाता है।
ये आंखें देखती नहीं है और ये जुबां भी कुछ बोलती नहीं है,
अंधे और बेजुबानों का ये दौर इस वतन के लिए ठीक नहीं है।
मुसीबत आने पर वो जानवर भी यहां पे लड़ने की कोशिश करता है,
और ये कैसा इन्सान है,जो बुराईयों के खिलाफ बोलने से भी डरता है।
गर आज तुम चुप बैठ जाओगे तो फिर कभी भी नहीं बोल पाओगे,
देखो अपने मासूम बच्चों को,कल वो इस चमन में खिले नहीं पायेंगे।
ये खिला हुआ चमन कहीं उजड़ ना जाएं,आज इसी का डर लगता है,
अब उखाड़ फेंको ऐसी सियासतें,जिनको ये हिंदोस्ता अपने बाप का लगता है – –
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