.

मैं साहित्य हूं | Newsforum

©हरीश पांडल, बिलासपुर, छत्तीसगढ़


 

 

मैं, साहित्य हूं

सभ्यता और संस्कृति

उन्नति या अवनति

वह साहित्यकार

की मर्जी है

किस रुप में वह

मुझे ढालेगा, या

मनोरंजन समझ

कर टालेगा

वह तो दुनिया से

रुखसत हो जायेगा

अगर वह गलत

लिख जायेगा

भावी पीढ़ी उस पर

इल्जाम लगायेगा

साहित्य समाज का दर्पण

कैसे कहलायेगा ?

सामना मुझे करना होगा

क्योंकि मैं, साहित्य हूं

साहित्य ही समाज की

अस्मिता की पहचान है

इस सच से क्या

साहित्यकार अनजान हैं

मेरा सृजनकर्ता ही

मेरा अपहरण कर्ता

तो नहीं है ?

अगर उसने मुझमें

एकता, मानवीय संवेदना

विश्व बंधुत्व और सद्भभाव

को शामिल नहीं किया

तो साहित्यकार, कलमकार,

और पत्रकार

समाज और अपने युग

को साथ लिए बिना

साहित्य की रचना

कर ही नहीं सकता

मैं साहित्य हूं

मैं समाज के लिए

तभी उपयोगी हूं

मैं युग चेतना बन

सकती हूं

व्यक्ति और समाज को

संस्कारित कर सकती हूं

मैं साहित्य हूं …


Check Also
Close
Back to top button