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आकाशदीप | ऑनलाइन बुलेटिन

©कुमार अविनाश केसर

परिचय- मुजफ्फरपुर, बिहार


 

 

चाँद!

आज

तुम –

बहुत सुंदर दिख रहे हो।

जानते हो – कैसे?

 

विचारों के

घने बादलों के बीच,

मन के आकाश पर,

लुक-छिप करते,

इशारों के अनकहेपन जैसे!!

 

रुई के नरम टुकड़ों से,

तुम ऐसे झाँक रहे हो-

जैसे

घने जंगल की,

ऊँची वनस्पतियों के,

पत्तों से छनकर,

आसमान झाँकता है!

 

आकाशदीप!

जानते हो?

तुम-

शीतल क्यों हो!

तुम बाँटते हो!!

जो बाँटता है –

शीतल होता है!!!

 


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