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कुछ दिनों की जिंदगी भी वो- – –

©प्रा.गायकवाड विलास

परिचय- मिलिंद महाविद्यालय, लातूर, महाराष्ट्र


 

 

आंधियां भी हार जायेगी मुझसे टकरा टकराकर,

हिमालय जैसा हौसला लेकर निकला हूं मैं।

 

मुद्दतों से रूका हैं वो अंधेरा मेरे ही आंगन में,

मगर इक दिन सूरज बनके जीत जाऊंगा मैं।

 

ख़ुद ही बनो खुदका सहारा तभी जीत पाओगे तुम,

लड़खड़ाते हुए कदम क्या मंजिल तक चल पायेंगे?

 

जमीं पर रहते हुए भी उसी मिट्टी से नफ़रत ठीक नहीं,

ये जो महल खड़े है,उसी जमीं का सहारा लेकर खड़े है।

 

गमों से रूबरू होकर हंसना सीख लिया है हमनें,

ऐ,जिंदगी तेरे जुल्मों सितम से अब हम हारनेवाले नहीं है।

 

कितने भी मिलें सुख,मन में फिर भी नई आशाएं है,

आसमां को छूने वाले महल भी देखो कितने उदास है।

 

टूटकर बिखरे हुए फूल भी खुशबू बिखेर जाते है,

कुछ दिनों की जिंदगी भी वो कितने शान से जीते है।

 

आंधियां भी हार जायेगी मुझसे टकरा टकराकर,

आज डुबा हुआ सूरज फिर नई रोशनी लेकर निकलता है।

 

 

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