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देश में पहले पेसमेकर बैंक की स्थापना 6 फरवरी सन् 1999 को, और जानें | ऑनलाइन बुलेटिन

©द्रौपदी साहू (शिक्षिका) 

परिचय– कोरबा, छत्तीसगढ़, जिला उपाध्यक्ष- अखिल भारतीय हिंदी महासभा.

 


 

 6 फरवरी सन् 1999 में कोलकाता में देश का पहला पेसमेकर बैंक स्थापित हुआ था। इसे एक चैरिटी संस्था के रूप में शुरू किया गया था। यह एक तरह का मेडिकल बैंक है, जो शहर के समृद्ध लोगों की मृत्यु के बाद उनके महंगे पेसमेकर सहेज लेता है।

 

फिर जरूरतमंद लोगों को ये जीवन रक्षक चीजें उपलब्ध करवाता है। इसमें सिर्फ 15-20 हजार रुपए खर्च आता है। इसकी स्थापना डॉ. डी आशीष ने की थी। इस बैंक के खुलने से पहले हर साल करीब सैकड़ों पेसमेकर्स मृत लोगों के साथ ही जाते थे और राख बन जाते थे।

 

एक पेसमेकर पर 40 से 80 हजार रुपए के बीच खर्च आता है। जबकि उपयोग किए जा चुके पेसमेकर्स को निकालने में महज 10 मिनट का समय लगता है।

 

डाॅ.डी आशीष ने देखा कि कई लोग दवाईयों और इलाज के अभाव में मर जाते हैं और कई लोग ऐसे हैं जिनके पास इलाज के बाद बची दवाएँ बेकार पड़ी रहती हैं। उन्होंने ठाना कि हम इन दवाओं को घर-घर से इक्कठा करेंगे।

 

स्वामी विवेकानंद के आदर्शों ने आशीष और उनके साथियों को खासा प्रेरित किया और वो अपनी इस मुहिम में जुट गए।

 

हाथ में थैला लिए आशीष और उनके दोस्तों की टोली घर-घर जाती और दरवाज़े खटखटा कर लोगों से अपील करती कि वो दवाईयाँ दान करें।

 

आम लोगों, डॉक्टरों और मेडिकल रिप्रेसेनटेटिव्स के ज़रिए हर साल हज़ारों रुपए की दवाएँ इकट्ठा होने लगीं।

 

समय के साथ आशीष के थैले में दवाओं के अलावा और भी कई चीज़ें शामिल होने लगीं।

 

अपना पुराना चश्मा दान करते हुए उनके पड़ोसी तरुण भट्टाचार्जी कहते हैं, ”हम लोग पुराने चश्मे, बैसाखी, वॉकर, जोड़ों के दर्द की पट्टियाँ सभी कुछ दान करते हैं।” एक बार तो एक परिवार ने पेसमेकर दान किया और तुरंत ही एक अस्पताल के ज़रिए वो एक ग़रीब व्यक्ति के काम आ गया।

 

इकट्ठा की गई ये चीज़ें आशीष के साथ जुड़े डॉक्टरों की एक टीम के ज़रिए समाप्ति तिथि और बीमारियों के आधार पर छाँट ली जाती हैं और फिर एक डिस्पेंसरी के ज़रिए इन्हें ग़रीबों में मुफ्त बाँट दिया जाता है।


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