मदारी | Onlinebulletin
©हरीश पांडल, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
मदारी डमरू बजाकर
लोगों का हुजूम लगाता है
अपनी कला दिखाकर
रुपये-दो-रुपये कमाता है
इस गांव से उस शहर
वह आगे बढ़ते जाता है
तंग किसी को नहीं करता
जो मिल जाये
उसी से खुश हों जाता है
बचपन में मैंने
जिस मदारी का
खेल तमाशा देखा था
आज मेरे बच्चे उसके
खेल तमाशा देख रहे हैं
कल भी वह मदारी
वैसा ही था
आज भी वह मदारी
वैसा ही है
लालच उसको
कल भी नहीं था
लालच उसको
आज भी नहीं है
भले उसके पास
रुपये-पैसे नहीं है
अब मैं उन सरकारी
मदारियों कि
बात करता हूं
जिनके ग्राहक निश्चित
और लिखित में है
जिनमे कुछ अनपढ और
बहुत कुछ शिक्षित में है
ये वे मदारी है
जिनके हाथों में
डमरू नहीं होता है
ये अपने चिकनी-चुपडी
बातों से
अपने ग्राहकों को कैसे
धोता है
ऐसे मदारियों का ग्रुप
है होता
आज ये जीतेगा अपने
चिकनी चुपड़ी बातों से
कल वो जीतेगा अपने
झुठे वादों से
यह इनके नामांकित
ग्राहक है
ये हमारे, केवल दुख के
वाहक है
ये मदारी दस्तावेजों में
हमारे नाम मिलाते
अपने- अपने ग्राहकों के
नख पर ना
मिटने वाले रंग
हैं लगाते
ये हमको चिन्हांकित करते
ताकि हम किसी और
मदारी के
ग्राहक ना बनते
इन मदारियों कि
इतिहास तो देखो
जब नये- नये मदारी
बनें तो, ये भी
हम जैसे ही लगते थे
तब ये गलियों में
घूम-घूमकर जनता के
पैर पड़ा करते थे
दूसरी बार मदारी जब
गलियों में आया
तो ये वी आई पी
लगते थे
पहले ये मदारी
पतलु- सुखडु दिखते थे
अब ये मदारी
भालू और गैंडा सा
दिखता है
बाद में पता चला कि
ये मदारी कर चुका है
जेल यात्रा
अब कर रहा है
जनता के आगे आगे
नेता बन पदयात्रा
मैं आज भी उस मदारी को
नहीं भूला
जो रुपये दो रुपए में
करतब दिखाकर
अपने बच्चों के
पेट था पालता
इस मोटे मदारी को
देखकर जमीर मेरा
मुझे लात मारता
वह नौटंकी दिखाने
वाला मदारी
यह जनता को नौटंकी
बनाने वाला मदारी
जनता अब यह सोच रही
कौन है भिखारी
नौटंकी दिखाने वाला
या
लोगों को नौटंकी बनाने वाला
वह भी मदारी
यह भी मदारी …