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दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे—!

©हिमांशु पाठक, पहाड़

परिचय- नैनीताल, उत्तराखंड.


 

ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन: सुबह का समय है, अंधेरा अपने घर को जाने की तैयारी कर रहा है। मुखानी चौराहे पर निशा रोज की तरह बस की प्रतीक्षा कर रही है । सामने ही प्राचीन शिव मंदिर है जहाँ से निशा अभी-अभी पूजा-अर्चना कर चौराहे के इस पार आकर बस की प्रतीक्षा कर रही है।

 

एक व्यक्ति सामने सड़क के बीचो-बीच बने चबूतरे में व्यायाम कर रहा है,कुछ यही दो-चार युवक सुबह की सैर पर निकले हैं, छोटी ,फटी जींस व टॉप पहनकर, उनको देखकर ऐसा लग रहा है ,जैसे अभी-अभी बिस्तर से सो कर उठें हों लंबी- सी उबासी लेते हुए चले जा रहे हैं,कान मे ईयरफोन लगाकर व हाथ में मोबाइल लेकर गाना सुनते हुए चले जा रहें हैं ।

 

दूर तक जाते हुए निशा उनको देखे जा रही है,जब तक कि वह आँखों से ओझल नही हो गयें,कुछ युवक एवम युवतियों का समूह आसमानी कमीज व नीली पेंट पहने  सड़क के उसपार खड़े हैं,निशा की ही तरह वो भी अपनी-अपनी बस की प्रतीक्षा कर रहें हैं । लोगों का आवागमन धीरे-धीरे शुरु हो रहा है। कुछ सुबह की सैर कर रहें हैं, कुछ अपने बच्चों को छोड़ने आ रहें हैं उनमें से कुछ पैदल ही अपने बच्चों को स्कूल तक छोड़ने जा रहे हैं  और कुछ स्कूल की बस में बच्चों को बैठाने के लिए बच्चों के साथ आए हैं ।

 

सामने अखबार विक्रेता अखबार लेकर आ गया और अपनी दुकान खोलने की तैयारी कर रहा है, सामने कुछ लोग मंदिर में पूजा कर रहें हैं सो भजनलाल मंत्रोंके स्वर कानों मे सुनाई देने से मन प्रफुल्लित है,ऊपर से शंखनाद और घंटा-ध्वनियों से मन भावविभोर हो रहा है।

सुबह  के मौसम में हल्की-सी ठंडक है ,सितम्बर का महीना छो शुरू हो गया और ऊपर से रातभर बारिश लगातार दो-तीन दिनों से जारी है ।अभी-अभी बारिश थोड़ी कम हुई है हल्की-फुल्की फुहारें चल रही हैं।

 

आसमान मेघाच्छादित है। हल्की-फुल्की हवा चल रही है।

मन मयूर बन नृत्य कर रहा है, सुबह के मनोहारी दृश्य को देखकर ।

निशा बस के इंतजार में खड़ी है सड़क के किनारे।

 

अचानक एक महंगी कार उसके सामने सड़क किनारे पर रूकी उसमें से एक महिला उतरी और उसने उस कार में से एक वृद्ध दंपत्ति को उतारा और निशा से कहने लगी कि ये लोग मेरे इजा-बाबूजी हैं।सुबह-सुबह इनको थोड़ी सी घबराहट हो रही थी इसलिए सोचा थोड़ी देर इन्हें बाहर की हवा दिखला दे।

 

निशा ने उन्हें कोई प्रतिक्रिया नही दी ।

 

फिर वह महिला  निशा से ही दुबारा पूछने लगी, “यहाँ कोई चाय की दुकान है क्या आसपास में ?”

 

निशा ने एक दिशा की ओर हाथ से इशारा कर बताया कि यहाँ से बस थोड़ी सी ही दूरी पर एक चाय की दुकान है।”

 

वह महिला फिर कहने लगी कि वह और उसका पति बस चाय लेकर आते ही है आप थोड़ी देर के लिए इन लोगों को देख लें।

 

निशा कहने लगी ,” मेरी बस आने वाली है अतः आप लोगों में से एक जनाब जिक्र छाय लेइए औल एक इनके पास रूक जाए।”

 

परन्तु उस महिला ने निशा को सिर्फ दो-एक मिनट को उन वृद्ध दंपत्ति को देखने का आग्रह किया और कार में बैठकर चली गयी चाय लेने।

करीब पांच-दस मिनट की प्रतीक्षा के बावजूद भी ना ही चाय आई और ना ही चाय लेकर वह कार आई; परन्तु हाँ निशा की बस जरूर आ गयी।

 

निशा  किंकर्तव्यविमूढ़ हो  कभी वृद्ध दंपत्ति को देखने लगी कभी पास आती बस को।

 

ना चाहते हुए भी निशा बस में बैठ गयी; उन वृद्ध दंपत्ति को उनके हाल में, ये सोचकर कि थोड़ी देर में उनके बेटी-दामाद शायद आ ही जाएंगे ।

 

जब तक बस से वो वृद्ध दंपत्ति उसको दिखाई दिए वो उनको देखे जा रही थी ; परन्तु धीरे-धीरे वो भी आँखों से ओझल हो गयें।

 

शाम को करीब छः बजे जब निशा बस से मुखानी में उतरी तो उस समय वो सड़क के उस पार थी।इस पार आकर उत्सुकता वश उसकी नजर पुनः उसी स्थान पर पड़ गयी, उसके तो होश ही मानों उड़ गये; वो वृद्ध दंपत्ति अभी भी उसी स्थान में बैठें थे और प्रतीक्षा कर रहें थें अपनों के आने की। एक पल वहाँ रुकने के पश्चात् निशा बढ़ चली अपने घर की ओर।

 

वह बुजुर्ग दंपत्ति आशा और निराशा के भंवर में सूरज के उतार और ढलाव के साथ उतरते-चढ़ते चले जा रहें थें; परन्तु ना ही उनके अपने उनको लेने आए और ना ही कोई अन्य उनकी सुधार लेने आए दोनों ही वृद्ध दंपत्ति एक-दूसरे का सहारा बन एक-दूसरे को ढाँढस बधाँ रहे थें और एक-दूसरे की सुरक्षा के लिए खुद के अंतर में ऊर्जा को एकत्रित कर रहें थें।

 

उधर निशा चल तो दी थी अपने मंजिल यानी अपने घर की ओर उस पथ पर, जो उसके घर की ओर जाता था; परन्तु आज वह द्विपथ पर थी। एक पथ जो उसके घर जाता था और दूसरा पथ जो जाता था उन बुजुर्ग दंपत्ति की ओर जो इस समय लाचार और बेबस थें।

 

समय शनैः-शनैः गतिमान होता रहा है । सूर्योदय और सूर्यास्त नित-निरंतर होते रहें।चौराहा यूँ ही गतिशील रहा।

 

सड़कें और जगह अपनी-अपनी जगह पर वैसे ही स्थिर रहीं ; बस चेहरे और समय दोनों ही बदलते चलें गयें।

 

वों वृद्ध आशाओं के साथ एक-दूसरें का सहारा बन उसी स्थान पर रहें ।उनकी वृद्ध आँखों में एक झूठी आशा थी कि उनके अपनें उनको लेने एक ना एक दिन तो आएंगे और शायद इसी झूठी आशाओं के सहारे उनकी दिन एक-एक दिन कर व्यतीत होने लगे।

 

निशा हर रोज उन्हें देखती और स्वयं ही आत्मग्लानी से भर जाती वह उस स्थान पर पल भर को भी खड़ी नही हो पाती थी; परन्तु उसकी विवशता थी।

 

ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह जब वह उसी स्थान पर आकर खड़ी हुई तो उस स्थान पर लोगों की भारी भीड़ एकत्रित थी। कौतूहल वश वह भी उस भीड़ को चीरती  हुई अंदर गयी तो अंदर का दृश्य देखकर  स्वयं को रोक नही पायी क्योंकि आज उसकी आत्मग्लानी रूपी रूका हुआ विस्फोट आंसुओ के रूप में उसकी आँखों से झर-झर बहने लगा था। आज दो बेसहारा पंछी में से से एक पंछी सदा-सदा के लिए ,दूसरें पंछी को अकेला छोड़ कर ,चला गया था।

 

वृद्धा जीवन से कूच कर गयी थी; वृद्ध को उसके हाल में अकेला छोड़ कर।

 

“दो हंसो का जोड़ा बिछुड़ गयो रे!

गजब भयो रामा जुल्म भयो रे!”

 

किसी के मोबाइल में अचानक यह धुन उस समय बज उठी।

 

वृद्ध, जिसकी स्थिति, उस समय  किंकर्तव्यविमूढ़ की सी थी। निशा जो इस दृश्य को देखकर व्यथित हो गयी थी। उसे रह-रहकर उस वृद्ध की स्थिति पर तरस आ रहा था ;परन्तु आज भी वो उसी दोराहे पर आ खड़ी हो गयी थी ,जहाँ वह बहुत पहले भी एक बार भटक गयी थी तब उसने दुनियादारी की राह पकड़ ली थी; आज फिर से वह उसी दोराहे पर आकर खड़ी है; जहाँ  एक ओर दुनियादारी है और दूसरी ओर मानवता । किस पथ का चयन वो आज करे।

 

खैर तभी उसकी बस आ गयी और वह बस में बैठकर जाने लगी अपनी मंजिल की ओर ; परन्तु आज वह काफी दुःखी थी उसकी आँखों से अश्रुधारा अनवरत बहती चली जा रही थी।

 

उधर वह वृद्ध ,वृद्धा के वियोग में विचलित था ; परन्तु उसकी आँखें, मानो पाषाण बन चुकी थी वह बस ऊपर की ओर देख रहा था। उसके मन में उठ रहे उच्चावचन को समझ पाना तो कठिन था; परन्तु इतना तय था कि उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी और वह हताश हो चुका था। वह वृद्धा के जाने का सदमा नही सह पा रहा था; अथाह प्रेम,जो था, उन दोनों के मध्य; जिन्होंने प्यार में खाई हुई साथ जीने-मरने की कसमों को पूर्णता से निभाया था; परन्तु आज एक वचन को तोड़ कर जा चुका था और दूसरा जीवन के बोझ को अकेले ही ढोने के लिए सड़क के किनारे विवश था; अपनी वृद्धा के शव के पास।

 

उधर बस में, निशा का तन बैठा तो जरूर था पर मन उस वृद्ध के पास था रह-रहकर उसकी आँखों से अश्रुधारा बहे जा रही थी। वो उधेड़-बुन में थी कि क्या करे! मानव धर्म का पालन करे या फिर निज हित को शिरोधार्य कर आगे बढ़े नौकरी के स्थल पर।

 

बस अनवरत तीव्र गति से सड़क पर दौड़ी जा रही थी।

 

अचानक निशा ने अपने मन को नियन्त्रित किया और कठोर निर्णय पर आकर रुक गई। अचानक परिचालक से कहकर बस रुकवाई और उतर पड़ी बस से नीचे। सड़क के उस पार छाकर नीशा कर रही है बस की प्रतीक्षा जो जाती है ; मुखानी चौराहे की ओर।

 

समाप्त

 

The pair of two swans got separated---!
हिमांशु पाठक, पहाड़

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