अक्षरों का खजाना…

©संतोषी देवी
तुमने पढ़ा, तुमने गुना,
तुमने सीखा,
तुमने सोचा,
वह तुमने लिखा।
मैंने भी आज पढ़ा,
मैंने भी गुना,
मैंने भी सोचा।
मुझे भी लिखना हैं।
मैं क्या तुम्हारा विरोधी थोड़ी हूं,
मैं तो चाहता हूं,
जैसे मुझे अक्षरों का खजाना,
मेरे मसीहा के प्रयास से मिला,
जिसे पाकर मैं, और मेरा समाज,
धन्य हुआ।
उसी तरह मैं पहुंचाना चाहती हूं,
उसी प्रयास से,
बदलती सोच का खजाना।
जहां पर अभी भी,
मेरे भाई और बहनों को,
मिला तो हैं,
वो पाकर खुश तो हैं,
लेकिन अलाप रहे हैं अभी भी
अपने कर्मो की दशा बाड़ी ।
तुम्हारे कर्म कांडों में,
तुम्हारी विद्याओं में,
मैं आड़े थोड़े आती हूं,
तुम भी मत आओ।
तुम पूजते हो,
करोडों देवता।
मैं पढ़ती हूँ,
गुनती हूँ,
मेरे
एक महापुरुष को।
और
तुम्हारे देवता,
जाने क्यों
ढहने लगते हैं
भरभर्रा कर,
मिट्टी के ढूह की तरह।
जाने क्यों,
सदियों से जमी हुई व्यवस्था में,
पड़ने लगती है दरार।
क्या तुम्हारे मिथ्या होने के,
ये सबूत
पर्याप्त नहीं है ?
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