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विश्व विख्यात कालजई साहित्यकार प्रेमचंद भारतीय साहित्य संस्कृति की अस्मिता के थे प्रतीक : डॉ. कान्ति लाल यादव | Newsforum

©डॉ. कान्ति लाल यादव, सहायक आचार्य, उदयपुर, राजस्थान


उपन्यास सम्राट प्रेमचंद भारतीय साहित्य संस्कृति की अस्मिता के प्रतीक थे। वे आधुनिक कहानी के पितामह थे। एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उनके साहित्य में साधारण जन की पीड़ा, समस्याओं का मार्मिक वर्णन अपने साहित्य सृजन के माध्यम से बड़े ही न्याय पूर्ण ढंग से किया। उनका साहित्य जन समुदाय के समुद्र में हिलोरों से प्रभावित ही नहीं करता बल्कि साहित्य जगत में अपने अनोखे नए अंदाज में पढ़े-लिखे वर्ग को जागृत करने का नव मार्ग दिखाने का महान् कार्य किया है जो भारतीय हिंदी साहित्य की विरासत के रूप में आज भी प्रासंगिक है और आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करता है।

 

उनका साहित्य प्रकाश स्तंभ की तरह है जो मानवीय जीवन की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में रूढ़िवादी, अंधविश्वासी, शोषण, अन्याय जैसी बुराइयों को खत्म करने का कार्य करता है तथा नव मार्ग को प्रशस्त करता है। प्रेमचंद एक आधुनिक हिंदी कहानी के पितामह, उपन्यासकार, कुशल संपादक, संवेदनशील लेखक, जागरूक नागरिक, आदर्श एवं यथार्थ के हिमायती, कुशल वक्ता, कलम के सिपाही थे।कहा जाता है उनकी कहानियां हिंदी साहित्य में मील का पत्थर है।साहित्य के क्षेत्र में कबीर, सूर और तुलसी की तरह प्रेमचंद ने भी जनमानस में आधुनिक साहित्य के रूप में जगह बनाई थी।प्रेमचंद साहित्य के हीरो के रूप में जन-जन के दिलों में आज भी बसे हुए हैं।

 

उन्होंने साहित्य के माध्यम से जनमानस में यथार्थ, आदर्श एवं नैतिक न्याय व सीख से बदलाव की मीठी नदी की जलधारा बहाइ जो आज भी और आने वाले समय में भी अमृत पान कराती रहेगी। जीवन में साधारण से साधारण रहकर भी उन्होंने अपनी विचारधारा को लेखनी के माध्यम से जो असाधारण कार्य किया वह आज भी साहित्य जगत में अविस्मरणीय है। प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के लमही गांव में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। गांव की संस्कृति उन्हें विरासत में मिली थी। ग्रामीण जीवन को उन्होंने निकटता से देखा था।

 

7 वर्ष की अवस्था में अपनी मां को खो दिया था। 14 वर्ष के थे तब पिता को। बचपन अभावों एवं कठिनाइयों में गुजरा था। संघर्ष ही मनुष्य को एक सच्चा इंसान बनाता है। एक साहित्यकार के संघर्ष से संवेदनाएं जन्म लेती है। प्रेमचंद की रचनाओं में मार्मिकता भी है और आम जनता की व्यथा भी है और उनके प्रति गहरी संवेदना भी। प्रेमचंद की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू में हुई थी। उन्होंने 1919 में बीए किया था। वे अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करना चाहते थे किंतु आर्थिक विषम हालात की वजह से ऐसा नहीं कर पाए। उनका विवाह 15 वर्ष की अवस्था में हो गया था किंतु वे पत्नी से असंतुष्ट थे।

 

उन्होंने 1905 ई. में पत्नी को त्याग दिया था और 1916 में बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया था जो बहुत ही व्यवहार कुशल और बुद्धिमती थी। प्रेमचंद जी का साहित्यिक सफर 1901 में प्रारंभ हो चुका था। प्रारंभिक काल में वे उर्दू में नवाब राय के नाम से लिखते थे।प्रेमचंद जी के शुरुआती दौर में राष्ट्रवाद का प्रभाव था तो बाद में आदर्श एवं यथार्थवाद का और जीवन में अंतिम पड़ाव में प्रगतिशील विचारों के साथ पूंजीपति महाजनी सभ्यता के विरोधी स्वर में उनकी लेखनी को हम पाते हैं। उन्होंने 1907 से 1915 तक उर्दू में कहानी लेखन किया।

 

प्रेमचंद के अनुसार प्रथम कहानी 1960 में दुनिया का सबसे ‘अनमोल रतन’ प्रकाशित हुई थी जो देशभक्ति से ओतप्रोत थी। जिसमें उन्होंने लिखा-” खून का यह आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज है।” प्रेमचंद का प्रथम कहानी संग्रह 1908 में ‘सोजे वतन'(राष्ट्र का विलाप) प्रकाशित हुआ जो राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था। जिसे अंग्रेज सरकार ने जप्त कर लिया और प्रतियां जला दी। उनको अंग्रेज सरकार द्वारा लेखन हेतु बाध्य किया गया और मनाही की गई। तब ‘जमाना’ पत्रिका के संपादक दयानारायण निगम ने उन्हें ‘प्रेमचंद’ नाम दिया।

 

‘कलम के सिपाही’ नाम उनके पुत्र प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतराय ने दिया था। प्रेमचंद्र नाम से उनकी प्रथम कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ “जमाना” पत्रिका के दिसंबर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने उर्दू में लगभग 178 कहानियां लिखी थी जो 13 कहानी संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई। उन्होंने हिंदी में लिखना 1915 में प्रारंभ किया था इससे पूर्व में वे उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद की हिंदी में प्रथम कहानी “परीक्षा” 1914 में ‘प्रताप’ साहित्यिक पत्र में छपी थी। उनकी “सौत” कहानी दिसंबर 1915 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।

 

उनकी कहानियों में घटना प्रधान थी बाद में आदर्शमूलक समाधान किया इसके बाद यथार्थ और की ओर अग्रसर हुए उनकी कहानियों में घटना प्रधान, चरित्र प्रधान एवं भाव प्रधान तीनों रूपों में देखा जाता है। कहानियां विविध शैलियों में तथा अनेक समस्याओं को लेकर लिखी गई। उन्होंने अपने जीवन काल में 300 से अधिक कहानियां लिखी थी। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में व्यक्ति समाज और राष्ट्र में फैली बुराइयों पर व्यंग किया तो आदर्श, यथार्थ और नैतिक न्याय की जोरदार वकालत की।

 

उनकी एक कहानी नमक का दारोगा में हम देख सकते हैं जिनमें उन्होंने भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी पर कितना करारा व्यंग्य किया है और वह कहानी आज भी उतनी सार्थकता को बयान करती है। उनकी लेखनी आज भी प्रासंगिक है।जिसमें नमक का दारोगा बंशीधर के पिता की सीख के माध्यम से वे कहते हैं- “नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना, जहां कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय तो बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है।”

 

‘सोजे वतन’, ‘नमक का दारोगा”, ‘प्रेम पचीसी’, ‘प्रेम तीर्थ’, ‘पांच फूल’, ‘सप्त सुमन’आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।कफन, ईदगाह, पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा, बूढ़ी काकी, पूस की रात, ठाकुर का कुआं, बड़े घर की बेटी, जुलूस, भाड़े का टट्टू, सद्गति शतरंज के खिलाड़ी आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियां है। प्रेमचंद की संपूर्ण कहानियां “मानसरोवर” नाम से आठ खंडों में प्रकाशन किया गया है।

 

उन्होंने 15 उपन्यास लिखे थे जिनमें आठ उपन्यास उर्दू में और 7 उपन्यास हिंदी में लिखे थे।बंगाल के विख्यात उपन्यासकार सरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कह कर संबोधित किया था।प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य जगत में कहानीकार तथा उपन्यासकार के रूप में सिर्फ एक पूरी सदी में प्रसिद्धि ही नहीं पाई बल्कि पूरी सदी का मार्ग प्रशस्त किया। सेवासदन (1908), प्रेमाश्रम (1922),

 

रंगभूमि(1925), कायाकल्प (1926), निर्मला (1927), गबन (1927), कर्मभूमि (1933), गोदान (1935), मंगलसूत्र (अपूर्ण) आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास है। सेवासदन और प्रेमाश्रम उपन्यासों ने साहित्य जगत में हलचल मचाई थी थी। प्रेमचंद का पहला उपन्यास “हम खुरमा हमसबाब” उर्दू भाषा में था। प्रेमचंद का प्रथम हिंदी उपन्यास “प्रेमा” 1907 में प्रकाशित हुआ था। उनके उपन्यासों में राष्ट्रीय आंदोलन, भारतीय संस्कृति, मानवतावाद, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, कृषक समस्या, दहेज प्रथा, शोषण, छुआछूत, ऊंच-नीच आदि विविध विषयों के बारे में जिक्र किया है। अपनी महान प्रतिभा के कारण वे युग प्रवर्तक एवं विश्व विख्यात कालजई रचनाकार के रूप में स्थान पाया है।

गोदान उनका सबसे लोकप्रिय और कालजई उपन्यास है यह ग्रामीण जीवन की कृषक संस्कृति का महाकाव्य कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी यह भारतीय किसान का यथार्थ दिग्दर्शन कराता है। ग्रामीण व शहरी संस्कृति से भी रूबरू कराता है साथ ही जमींदारों का शोषण तो अमीरी – गरीबी की व्यथा कथा से भी अवगत कराता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके बारे में कहा था -“प्रेमचंद्र शताब्दियों से पद दलित अपमानित और उपेक्षित कृषकों की आवाज थे।”

 

कर्बला, प्रेमदेवी, संग्राम जैसे नाटक है।कुछ विचार, विविध प्रसंग उनके निबंध संग्रह है। उन्होंने प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका जमाना, माधुरी, मर्यादा, जागरण, हंस का संपादन किया था। वे अध्यापक की नौकरी के बाद में इंस्पेक्टर बन गए थे। वे साहित्यकार के अलावा स्वतंत्रता सेनानी भी थे। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था। जिसके लिए उन्होंने अपनी नौकरी से त्यागपत्र भी दे दिया था।मात्र 33 वर्ष की अवधि में साहित्य सृजन की महान सेवा कर हिंदी साहित्य जगत की अद्भुत एवं अविस्मरणीय सेवा दी थी।

 

प्रेमचंद सन् 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। उनके साहित्य लेखन को काल विभाजन के रूप में दर्शाया जाता है। प्रेमचंद के पूर्व युग, प्रेमचंद युग और प्रेमचंदोत्तर युग के रूप में जाना जाता है। ये उनके महानतम उपलब्धि और महत्व को दर्शाता है।साहित्य के बारे में वे कहते थे -“साहित्य वह जादू की लकड़ी है जो पशुओं में, ईंट पत्थरों में, पेड़ पौधों में भी विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है।”

 

वे यह भी कहते थे -“साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।” वे उर्दू फारसी अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में लिखने वाले सिद्धहस्त साहित्यकार थे। उनके साहित्य में सुनहरे सपनों को साकार करने वाले कथनों की भरमार है जैसे -“इंसान सब है पर इंसानियत बिरलों में मिलती है।”, “अतीत चाहे जैसे भी हो उनकी स्मृतियां प्राय: सुखद होती है।”, “आत्म सम्मान की रक्षा, हमारा सबसे पहला धर्म है।”, “आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।”, “वे कहते थे-” मैं एक मजदूर हूं जिस दिन कुछ लिख ना लूं उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं।”, “जब दूसरों के पांव तले अपनी गर्दन दबी हुई हो तो उन पावों को सहलाने में ही कुशल है।” वे यह भी कहते थे -“क्रांति बैठे ठालों का खेल नहीं है। वह नई सभ्यता को जन्म देती है।”, “चापलूसी का जहरीला प्याला आपको तब तक नुकसान नहीं पहुंचा सकता जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझ कर पीना जाए।” आदि।

 

1980 में भारतीय डाक विभाग ने प्रेमचंद के जन्म के 100 वर्ष पूर्ण होने पर डाक टिकट जारी किया था।

 

प्रेमचंद की कई रचनाओं पर अनेक फिल्में बनी। सत्यजीत राय ने उनकी दो कहानियों पर फिल्म बनाई शतरंज के खिलाड़ी 9277 में और सद्गति 1981 में बनी। सुब्रमण्यम ने सेवासदन उपन्यास पर 1938 में फिल्म बनाई। मृणाल सेन ने उनकी ‘कफन’ कहानी पर 1977 में फिल्म बनाई जो तेलुगु में “ओका ऊरी” के नाम से बनी। उनके उपन्यास गोदान पर 1963 में, गबन पर 1966 में फिल्में बनी है।उनका उपन्यास निर्मला पर 1980 में दूरदर्शन धारावाहिक चलाया गया जो काफी लोकप्रिय रहा। जनता ने बहुत सराहा।

 

प्रेमचंद सच्चे अर्थों में कलम के जादूगर एवं कलम के सिपाही थे वे एक जागरूक एवं सशक्त साहित्यकार ही नहीं बल्कि मजबूत प्रहरी संवेदनाओं के संवेदनशील लेखक एवं कुशल संपादक थे। विश्वविख्यात कालजई साहित्य शिखर महापुरुष थे। वे मात्र 56 वर्ष की आयु में 8 अक्टूबर 1936 वाराणसी में अपनी देव को त्याग दिया।

 


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