ऑनलाइन बुलेटिन : अब ये ज़माना नया हुआ है…
©गायकवाड विलास
परिचय- मिलिंद महाविद्यालय लातूर, महाराष्ट्र
दीया बनके जलें हम औरों के लिए,
अंधेरा खत्म होते ही वो हमें भूल गए।
ज़मीर बेचकर अपना ये ज़माना कितना आगे निकल गया है,
चारों दिशाओं में देखो ये कैसा बेईमानी का मौसम छाया है।
निगाहों में उनके बेशर्मी की कोई भी हया नहीं है,
ऐसी बेशर्म निगाहों की यहां कोई भी कमी नहीं है।
बेईमानी के राहों पर कारवां बनके वो चलें है,
ऐसे दौर में अब कहां वो सच्चाई के फूल खिले है।
कल उस चमन में सच्चाई की खुशबू महक उठा करती थी,
उजड़ गया वो चमन,कागज़ के फूल अब हर जगह नज़र आते है।
अच्छाई का चोला पहनकर वो बुराईयां अपनी छुपाते है,
ख्वाब औरों के जलाकर,महल अपने वो सजाते है।
फरिश्तों का नकाब लगाके,अब ये ज़माना नया हुआ है,
ऐसे में कहां ढूंढे फ़रिश्ते,वो जहां तो सदियों पहले ख़ाक हुआ है।
दीया बनके जलते रहना,बदल नहीं सकें यही फितरत हम,
भले ही इस ज़माने ने दिए हमको पल-पल वो रंजोगम।
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