भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य के सूत्रधार थे | Newsforum
©डॉ. कान्ति लाल यादव, सहायक आचार्य, उदयपुर, राजस्थान
भारतेंदु हरिश्चंद्र एक युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। उनका जन्म 9 सितंबर 1850 को हुआ था। जब उनका जन्म हुआ तब भारत अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। भारतेंदु को साहित्य सृजन उनको विरासत में मिला था। भारतेंदु अपने बचपन में 11 वर्ष की अवस्था में ही कविता लिखने लगे थे। उनका बाल विवाह हुआ था 13 वर्ष की उम्र में मन्नादेवी के साथ। वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे हिंदी संस्कृत उर्दू बांग्ला मराठी पंजाबी और गुजराती आदि। वे बचपन में काफी चंचल थे। वे बहुत ही विनम्र और उदार, सुशील, मिलनसार, आत्मा भी मानी तथा अद्भुत प्रतिभा के धनी इंसान थे। वे एक महान् साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक समाज सुधारक भी थे। 11 वर्ष की उम्र में ही संस्कृत का विधिवत ज्ञान अर्जित कर चुके थे।
जनश्रुति है कि भारतेंदू हरिश्चंद्र ने 5 वर्ष की उम्र में पिता की रची पंक्ति -“लै ब्यौढा़ ठाढे़ भये श्री अनिरुद्ध सुजान” की दूसरी पंक्ति “वाणासुर की सैन्य को हनन लगे भगवान।” तुरंत गढ़ दिया था। वे “रसा” उपनाम से काव्य लिखते थे। वे मूलतः पत्रकार थे। सारा जीवन साहित्य सेवा में और समाज सेवा में लगाया। वे सदा ही हिंदी के हिमायती रहे। जबकि शुरुआती दौर में वे ब्रज में काव्य लिखते थे। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा हेतु कहा था-
“निज भाषा उन्नति अहो, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान को मिटे न हिय को सूल।।”
उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने की भरपूर कोशिश की थी।उन्होंने हिंदी साहित्य जगत में नई विधाओं में नयापन को खोज कर नवजागरण किया था। डॉ नगेंद्र ने भारतेंदु युग को हिंदी साहित्य का “पुनर्जागरण काल” कहा।उनके द्वारा हिंदी साहित्य में अद्वितीय योगदान की वजह से 1857 से 1900 तक के कालखंड को भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है। भारतेंदु की भाषा पाठक और लेखक के बीच पुल का काम करने वाली थी। भारतीय हिंदू सही मायने में आधुनिक हिंदी गद्य के सूत्रधार जन्मदाता थे। खड़ी बोली में नाटकों का सूत्र साथ ही भारतेंदु ने किया था।उनके युग में खास बात यह थी कि पद्य रचना ब्रजभाषा में तथा गद्य रचना खड़ी बोली में सरल, सहज ,परिष्कृत रूप में लिखी जाने लगी थी। रीतिकाल में जो हिंदी साहित्य केवल दरबारी संस्कृति के काव्य तक सीमित था अब वह सामान्य जन के काव्य के रूप में सृजन होने लगा था। उन्होंने साहित्यकारों का नेतृत्व प्रदान किया था कथा राष्ट्र का गहन चिंतन को अपने साहित्यकार मंडली से साहित्य सृजन करने की दिशा प्रदान की थी।
भारतेंदु ने वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग में दीक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने स्त्री शिक्षा का समर्थन किया था और शराब विरोधी आंदोलन का भी सूत्रपात किया था। वह बहुत उदार स्वभाव के थे। अपने दानी स्वभाव के कारण उन्होंने अपने पूर्वजों की संपत्ति को लूटा कर गरीब हो गए थे।काशी नरेश ने उन्हें समझाने की प्रार्थना की और समझाने लगे तब उन्होंने कहा था-” हुजूर इस धन ने मेरे पूर्वजों को खाया है अब मैं इसे खाऊंगा।”
उन्होंने 1870 ईस्वी में समाज सेवा के रूप में “कवितावर्दिनी सभा” ,की स्थापना की ।”वैश्य हितैषिणी” सभा”, ‘अनाथरक्षिणी सभा”, काशी सार्वजनिक सभा”, “यंगमेन्स एसोसिएशन” और “होम्योपैथी चिकित्सालय” की स्थापना कर राष्ट्र सेवा की थी।
साहित्य सेवा हेतु उन्होंने “बाला बोधिनी पत्रिका”,”हरीश चंद्र पत्रिका”( 1873) जिसे बाद में “हरिश्चंद्रिका पत्रिका ” कर दिया और सन्1868 में “कवि वचन सुधा” जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया था। भारतेंदु ने मौलीक्यू अनुदित नाटकों को मिलाकर 17 नाटक लिखे थे 21 काव्य संग्रह 48 प्रबंध काव्य एवं मुक्तक रचनाएं लिखी थी। उन्होंने कुल 70 रचनाएं लिखी थी।भारतेंदु युगीन साहित्य में प्राचीन एवं नवीन रचनाओं का मिश्रण था जिसमें मुकरियां, पहेलियां, भक्ति, रीति, नीति एवं श्रृंगार की प्रवृत्तियों के रूप में प्रयोग किया गया था।
उनके साहित्य में संयोग श्रृंगार एवं वियोग श्रृंगार का वर्णन है तो भक्ति प्रधान काव्य का प्रयोग भी किया गया। सामाजिक समस्याओं को साहित्य में उकेरा तो राष्ट्रप्रेम प्रकृति प्रेम को भी।उन्होंने नाटक निबंध इतिहास यात्रा वृद्धि मिनी आदि विधाओं पर कार्य किया।भारतेंदु द्वारा विभिन्न क्षेत्रों की समस्या पर (समस्या पूर्ति के लिए)”कवितावर्धनी सभा” तथा 1873 में “तदीय समाज” की स्थापना की थी। उनमें भारतीय संस्कृति के अलावा पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी था।
उन्होंने गुलाम भारत की आंतरिक समस्याओं को भी बड़ी बारीकी से उकेरा था।भारत दुर्दशा और अंधेरी नगरी लिखकर अंग्रेजी साम्राज्य के शोषण अत्याचार को लेकर ब्रिटिश सरकार की आंखें खोलने का काम किया था। मात्र 34 साल 4 माह तक अपनी छोटी सी जिंदगी में अद्भुत मिसाल को कायम किया इस अद्भुत अविस्मरणीय साहित्य सेवा से हिंदी साहित्य जगत सदा इनका ऋणी रहेगा। उनकी महान सेवा एवं अद्भुत प्रतिभा की वजह से काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें “भारतेंदु” अर्थात् (भारत का चंद्रमा)की उपाधि प्रदान की थी।