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महफ़िल मिली न कारवाँ | ऑनलाइन बुलेटिन

©कुमार अविनाश केसर

परिचय- मुजफ्फरपुर, बिहार


 

हम तो अपनी हमसरी में इस तरह गाफ़िल रहे,

आज तक अपनी कहीं महफिल मिली , ना कारवाँ ।

 

या खुदा! जब भी तुम्हारी याद दिल को छू गई,

दिल के इशारे ने चुने मोती खरे दरियाव के।

 

नाखुदा है समझ बैठा दरिया उसके आसरे,

लहरें उठी, साहिल डूबा, फिर नाव के संग नाखुदा।

 

यहाँ बाग- ए – बहाराँ में कहीं कोई गुल नहीं खिलता,

कसम ले लो जहाँ भर की – यहाँ बस धूल मिलती है।

 

जोड़ कर देख लो लाखों तगाड़े तुल तिकड़म के,

ये करोड़ों के फसूँ नहीं साथ जाते हैं,

 

चाहे जो करो यारों जहाँ में जीने मरने को,

मगर होते ही आँखें बंद कफन तक छूट जाते हैं।

 

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