क्या है जिंदगी…
©आर.वी.टीना
क्या है जिंदगी?
अक्सर यही सवाल मन में बार बार आता है,
कभी रात के अंधेरों सी तन्हा,
तो कभी दिन के उजाले से भी ज्यादा रोशन लगती है ज़िंदगी,
कभी बसंत की बसंती बहार,
तो कभी पतझड़ सी सूखी पड़ी लगती है ज़िंदगी,
कभी सर्दी की ओस सी धुंधली,
तो कभी गर्मी में ठंडी हवा के सुकून सी लगती है ज़िंदगी,
कभी धूप में नंगे पांव से पड़े छाले सी जलन के दर्द सी,
तो कभी बिन मौसम बरसात से कुछ अच्छा होने सी लगती है ज़िंदगी,
कभी पापा के फटकार सी,
तो कभी मां के गोद में मिले सुकून सी लगती है ज़िंदगी,
कभी बचपने वाली प्यारी और मासूम,
तो कभी जवानी में हुए निराशा के घेरों सी लगती है ज़िंदगी,
कभी सच्ची मुस्कान और सरल,
तो कभी झूठी मुस्कान और बेहद कठिन सी लगती है ज़िंदगी,
आखिर क्या है ज़िंदगी?
जैसा हमने सोच लिया,जैसा हमने खुद को ढाल लिया,
आखिर यहीं ही तो है ज़िंदगी,
कई उतार चढ़ाव के बाद की सफलता से मिली खुशी,
आखिर यहीं तो है ज़िंदगी,
खुद के लिए जीना, सपनो को पूरा करना,
आखिर यहीं तो है ज़िंदगी,
क्यों बिखरना, क्यों टूटना
चलते रहो,बढ़ते रहो,खुश रहो
क्या पता आखिर कब तक हो ज़िंदगी।।
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